Thursday 31 August 2017

हॉकी के जादूगार ध्यानचंद जी की ऐसी डॉक्यूमेंटरी जिसपर आप गर्व के साथ देश के सिस्टम पर गुस्सा करोगे।

हॉकी के जादूगार ध्यानचंद जी की ऐसी डॉक्यूमेंटरी जिसपर आप गर्व के साथ देश के सिस्टम पर गुस्सा करोगे।
ध्यानचंद हॉकी का ऐसा नाम जिसे हर कोई जनता है पर क्या आप उस दौर को देखना और जानना चाहते हो जिस दौर में ध्यानचंद हॉकी खेला करते थे। अगर आपने चक्रवर्ती सम्राट का नाम सुना होगा । जिस प्रकार चक्रवर्ती सम्राट का अश्व जिस भी राज्य में प्रवेश कर जाता था वह राज्य उस राजा का हो जाता था जिसका वह अश्व था। इसी प्रकार उस दौर में ध्यानचंद जी जादू पूरी दुनिया के लोगों पर सर चढ़कर बोलता था। भारत की हॉकी टीम जब एक बार हॉकी खेलने के लिए विदेसी दौरे पर निकलती थी तो आप यकीन नहीं करोगे उन्होंने जितने भी देशो के साथ खेला सब में विजय रहे । सबसे बड़ी बात ये है की भारत ने एक भी गोल नहीं खाया तथा हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने अकेले सौ गोल किये।
यह हकीकत जितनी गर्व करने वाली है उतनी ही गुस्सा करने वाली है। जब आप इस विडिओ को देखोगे तो आपको अपने आप पर गर्व भी होगा और आपको अपने सिस्टम पर गुस्सा भी आएगा कि आखिरी क्यों हमारी सरकारें इतनी असंबेदनशील होती है कि जिस ध्यानचंद ने भारत का सर पूरे विश्व में शान से ऊँचा किया उन्हें अपने जीवन के अंतिम दिनों में इतनी कठिनाई में मरने के लिए भगवान् भरोंसे छोड़ दिया। pls पूरा विडिओ जरुर देखना बड़ा अच्छा विडिओ है।

सिंहावलोकन कविता - मृगनयेनी

सिंहावलोकन कविता, काब्य की एक बिधा है। इस प्रकार की कविता में कविता जिस पहले शब्द से शूरु होती है, उसी शब्द से खत्म होती है, तथा कविता की पहली पंक्ति जिस शब्द से खत्म होती है अगली पंक्ति की शुरुआत उसी शब्द से होती है, और ये क्रम आगे की पंक्तियों में भी जारी रहता है।

मेरी इस प्रकार की एक कविता आप लोगों के सामने प्रस्तुत है।


मृगनयनी चित चोर छै तू चंचल स्वाणी,
स्वाणी सूरत मा त्येरि या मायाळी बाणी।

बाणी पर स्वरुं कू साज सरस्वती च लै,
लै पहनी कि जब तिन सोलह श्रृगांर कै।

कैै-कै दिन तक हर्ची रै म्येरि सेणी खाणी,
खाणी कमाणी मा बी गंट्याणू त्येरि गाणी।

गाणी इनि मिन देखी त्वेमा अन्वार फ्योली,
फ्योली सी उदमति तू घसेरुयूँ की छै न्योली।

न्योली सी झीस लग्येगे म्येरा क्वंसा प्राणमा,
प्राणमा बसग्ये जन भौरुं बसी फुल रस खाण।

खाण छै तू रूप रंगे की भली-भली मयेळी,
मयेळी माया जरा पैन्छी देदी हे!बांद दयेळी।

दयेळी छै तू रूपवती गुणवती हे! नृपनयेनी,
नृपनयेनी बणी रै तू सदा म्येरी हे! मृगनयेनी।।

प्रदीप रावत "खुदेड़"
31/08/2017

Wednesday 30 August 2017

अ बटि अः तक गढ़वोळी सवरूँ कू वाक्य प्रयोग


अ-: अब स्यूं नेतो कू ढालू पहचैण मा आणू च
आ-: आम छौ पैली जीतणा बाद ख़ास व्हे जाणू च ।।

 इ-: इबरीदां चुनौ मा तैन फिर गौमा जाण।
 ई-: ईंट ढुंग धारि योजनो कु शुभारम्भ कै जाण।।

 उ-: उबारिदां जू वादा कैरी छा तैन फिर वी बोलण
 ऊ-: ऊँच नीच कु खेल तैन फिर इबरी बी खेलण।।

 ए-: एक मैना तक नोन्यलु तै खूब दारु तैन पिलाण।
 ऐ -: ऐन्च मंच पर चौड़ी विकास की नौटंकी चलाण।।

 ओ-:ओर पोर तैका चेला चमचा की हमेसा मौज राण।
 औ-: और जितणा बाद तैंन कबि मुख्जात्रा नि दिखाण।।

अं- अंध भक्ति मा नि डुबा तै की मान जावा म्येरि बात।
अः- अःण सुण कन तैन तुम्हारी मांग जीतणा का बाद।।

प्रदीप रावत "खुदेड"
29/08/2017

Tuesday 29 August 2017

सुशील बहुगुणा की एक और शानदार रिपोर्ट NDTV के सौजन्य से - प्राइम टाइम : चीन की सीमा से लगे आख़िरी गांव का हाल

चीन की सीमा से लगा भारत का ये आखिरी गांव है. लेकिन ये हमारे देखने का नज़रिया भर है. दूसरी तरफ़ से देखें तो ये भारत का पहला गांव भी है. लेकिन शायद हमने अपने गांवों को इस तरह देखना बंद कर दिया है. पहला होने की हैसियत, गांवों को अब कहां हासिल रह गई है. हम अब बड़ी-बड़ी योजनाओं, बड़े-बड़े सपनों की बात करते हैं. छोटी-छोटी सच्चाइयां इस विराट कहानी में जैसे ओझल हो जाती हैं. By NDTV 




Monday 28 August 2017

गढ़वाली बाल कविता प्यारी बाछी(मि गोड़ी प्यारी प्यारी बाछी छौ)


मि गोड़ी प्यारी प्यारी बाछी छौ
मि कुछ नि बोलदो मि अभी लाटी छौ

कबी ये चैक कबी वे चैक मि भगदू छौ
छोटा नौनो दगड़ी मि खेलदू छौ

काळी सफेद लाल होंदू म्येरू रंग
खुश व्हे जंदो मि बच्चों का संग

मि गोड़ी प्यारी प्यारी बाछी छौ
मि कुछ नि बोलदो मि अभी लाटी छौ

प्रदीप सिंह रावत "खुदेड़ "
29 08 /2017 
 

Sunday 27 August 2017

बाल कविता -घिंडुड़ी "मि फुर उड़ीत्येरि डिंडाळी मा आन्दू"



मि फुर उड़ीत्येरि डिंडाळी मा आन्दू
मि सुर उड़ी त्येरि तिबरि मा आंदू

मे देखी की गुडिया राणी खुश व्हे जांदी
गोळया लगे लगे की वा म्येरा पैथर आंदी

मि वींका बाँटौ दूध पेकी फूर उड़ी जांदू
कबी कबी वेंकी दगड़ी मि छवी बी लगांदू

मि फुर उड़ीत्येरि डिंडाळी मा आन्दू
मि सुर उड़ी त्येरि तिबरि मा आंदू

प्रदीप रावत "खुदेड़"
28 /08 /2017 
 

Saturday 26 August 2017

घुघती राणी Spotted dove -बाल कविता नंबर एक


या म्येरा पाडे़ घुघती राणी च,
टूप-टूप गुट्यार मा एैकी चारू खाणी च।

घुर-घुर कैकी तै वा दगड्यों तै बुलाणी च,
अपड़ा चोंचन वा सगोड़ा मा चारू खोज्याणी च
चोंच मा दबै की वा बच्चो कू चारू लिजाणी च।

आज घुघती हुयी कुछ उदास च,
किलै की गुडिया गयी अपड़ी नान्या पास च।

या म्येरा पाडे़ घुघती राणी च,
टूप-टूप गुटयार मा एैकी चारू खाणी च
या म्येरा पाडे़ घुघती राणी च,
टूप-टूप गुटयार मा एैकी चारू खाणी च।

प्रदीप रावत  "खुदेड़ "

Friday 25 August 2017

एक हफ्ते में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला गढ़वाली हास्य VIDEO

आखरि इस विडिओ में ऐसा क्या है कि यह एक हफ्ते में उत्तराखंड यू ट्यूब पर सबसे ज्यादा देखा जाने वाला विडिओ बन गया, अभी तक इस विडिओ को दो लाख पैंतीस हजार से भी ज्यादा बार  देखा गया है, एक कमरे में विना किसी स्क्रिप्ट, बिना किसी तैयारी, और बिना मजे कलाकारों, के द्वारा फिल्माया गया है, आप देख सकते है की बहार की आवाजे भी इस विडिओ में आ रही है, हालाँकि इसमें पुरुष कलाकार धारा प्रवाह गढ़वाली बोल रहा है, उसकी भाषा पर पकड़ अच्छी होने के साथ टाइमिंग अच्छी है जो लोगो को पसंद आ रही है, लड़की को गढ़वाली नहीं आने के बाद भी वह गढ़वाली के कठिन शब्दों को समझ रही है, और उसका जवाब अपने अंदाज में दे रही है, यही इस विडिओ की खासियत है, जो लोगों को देखने और शेयर करने पर मजबूर कर रही है |
जहाँ कुछ साल पहले उत्तरखंड में सिनेमा लगभग ख़त्म सा हो गया था, यू ट्यूब आने के बाद धीरे-धीरे सही पर उत्तराखण्डी सिनेमा अपनी पकड़ मजबूत बना रहा है, और कई लोग इसमें काम करने को तैयार हो रहे है, अभी हाल ही में अनमोल प्रोडक्शन ने "पहाड़ी घचेक" नाम से एक कुमाउनी सीरीज निकली है जो लोगों को बहुत पसंद, गौरतलब है की अनमोल प्रोडक्शन ने अभी हाल ही में गोपी भेना नाम से एक कुमाऊंनी फिल्म भी बनायीं थी जो लोगों को बहुत पसंद आयी जल्द यह फिल्म ऑनलाइन भी देश विदेश में दिखाई जाए वाली है ,
इसी प्रकार ईजा प्रोडक्शन भी गढ़वाली कुमाउनी सीरीज जल्द लाने वाले है जिसकी आजकल दिल्ली के अलग अलग जगह पर शूटिंग चल रही है, ईजा प्रोडक्शन लोकरंग टीवी के माध्यम से फसक नाम से भी एक सीरीज चला रहा है, गढ़वाली और कुमाउँनी कविताओं को भी ईजा प्रोडक्शन लोगों के बीच लाने का काम कर रहा है
वही राखी धनै अपनी गढ़वाली सीरीज के माधयम से प्रसिद्ध हो चुकी है, बीइंग उत्तराखंडी के नाम से यह सीरीज काफी दिनों से यू ट्यूब पर पसंद की जा रही है, इसमें एक और जाना माना नाम और है भगवान् चंद जो छोटे जोक के माध्यम से यु ट्यूब पर छाये रहते है, कुल मिलकर हम कह सकते है की आने वाले वाला वक्त उत्तराखंडी सिनेमा में कुछ नया होने होने जा रहा है,

यूँ कब तक देश को जलाते रहोगे,


यूँ कब तक देश को जलाते रहोगे,
अंध आस्था, अंधश्रद्धा, अंधभक्ति,
के नाम पर कब तक आग लगाते रहोगे।।

कभी अराक्षण के नाम पर हिंसा करते हो,
कभी एक अपराधी के पक्ष में लड़ते हो।
कभी धर्म के नाम पर बेगुनाओ के काल बन जाते हो,
ढोंगियो के लिए भी राजनितिक ढाल बन जाते हो।।

क्या ये देश तुम्हारा नहीं है?
क्या ये सम्पति तुम्हारी नहीं है?
अपने बच्चो को क्यों अंधकार में धकेल रहे हो,
अपने कल को क्यों शुन्यकार में खदेड़ रहे हो।।

कभी मुगलों ने लुटा, कभी सालो लुटा गोरो ने,
आज लुटा है इस देश को खुद के प्यारे छोरो ने।
आज कुछ औरते भी पाप के पक्ष में खड़ी है,
एक अपराधी के लिए जान लेने पर तुली है।

गुस्सा इस बात का होना था !!
कि सजा क्यों नहीं मिली थी, अपराधी को अब तक,
धर्म चोला पहनकर लूटेंगे स्त्री की इज्जत ये कब तक।
जिस के साथ ये अन्यायी हुआ क्या उस पर बीती होगी,
राजनितिक सर्क्षित अपराधी से ये लड़ाई कैसे जीती होगी।

प्रदीप रावत "खुदेड"
26/08/2017

रिलीज हुआ किशन महिपाल का नया उत्तराखंडी गीत "स्याळी शंकरा "

फिर एक बार अपनी आवाज से धूम मचाने को आ चुका है किशना महिपाल का "स्याली शंकरा" गढ़वाली गीत, गौरतलब है कि किशन महिपाल के फ्युलोडिया गीत को अभी तकंप MP3 और विडिओ वर्जन को 45 लाख से ऊपर लोग देख चुके है , इसके आलावा इस गीत में उत्तराखंड के नए टेलेंट ने अपने हिसाब से अलग-अलग स्टाइल में नृत्य किया है, इन के द्वारा बनाये गए विडिओ को भी लाखो लोगों ने देखा है, इस


तरह से उत्तराखंड के गीत संगीत में यह गाना सबसे ज़्यदा देखा जाने वाला गीत बना हुआ है, क्या किशन महिपाल का नया गीत स्याळी शंकरा इस गीत के रिकॉर्ड को ब्रेक करेगा, ये तो आने वाला वक्त ही बातयेगा, स्याळी शंकरा का म्यूजिक ईशान डोभाल ने तैयार किया है और रिदम उत्तराखंड के जाने माने ढोलक वादक सुभाष पांडे जी का है, स्याळी शंकरा का पूरा गीत इस लिंक को ओपन करके दिखिए

मै उस पहाड़ का एक भागा हुआ सिपाई हूँ , By Pradeep Singh Rawat Khuded


मै उस पहाड़ का एक भागा हुआ सिपाई हूँ ,
मै उस पहाड़ का एक हारा हुआ सिपाई हूँ ।

मै उसकी बिषम प्रस्थिति से लड़ न सका,
मै उसकी कठोर मेहनतकश ज़िन्दगी में ढ़ल न सका।
मुझे जो आसान रास्ता दिखा मैंने उसे ही स्वीकार किया,
मैंने पहाड़ से ज्यादा अपने हितों से ही प्यार किया।
मै उस पहाड़ का एक भागा हुआ सिपाई हूँ ,
मै उस पहाड़ का एक हारा हुआ सिपाई हूँ ।

मैंने एक बार भी नहीं सोचा,
अगर पहाड़ के हित के लिए लड़ता 
तो मेरी आने वाली पीढियाँ नहीं होती बेमुख,
उनकी राह के काँटों को मै चुन लेता 
तो कभी नहीं मिलता उन्हें कोई दुःख।
पर मैंने इस पहाड़ के हाल को कुछ 
सत्ता लोभी नेताओं के हवाले छोड़ दिया,
चल उठा मै थैला लेकर शहर की ओर 
अपनी जिम्मेदारी से मुख मोड़ दिया।

मैंने कभी वहाँ के संसाधनों का उपयोग करने का प्रयास नहीं किया,
मैंने कभी वहाँ के भटके युवाओं को सही मार्ग दर्शन नहीं दिया।
मैंने अपनी ही पीड़ा को पहाड़ में सर्वपरि माना ,
कभी वहाँ की माँ बेटियों के दुःख को नहीं पहचाना।
मै उस पहाड़ का एक भागा हुआ सिपाई हूँ,
मै उस पहाड़ का एक हारा हुआ सिपाई हूँ। 

क्या हुआ अगर मेरे सपने रह गए थे  अधूरे,
मेरे आने वाले दोस्तों के सपने तो होते पूरे।
मुझे वहाँ के बिकास के लिए अपनी जवानी खपानी चाहिए थी,
लोगो में उनके  अधिकारों के प्रति एक क्रांति जगानी चाहिए थी।
मै उस पहाड़ का एक भागा हुआ सिपाई हूँ,
मै उस पहाड़ का एक हारा हुआ सिपाई हूँ।


Thursday 24 August 2017

इस मुद्दे पर जरा गहराई से गौर करें : बहस को आगे बढ़ाने की गुजारिश ,कौन-सी है कुमाऊनी की कविता-परंपरा -By Laxman Singh Bisht Batrohi


दो साल पहले उत्तराखंड के जौनसार भाबर की लोक कविता परंपरा पर फेसबुक पर युवा एक्टिविस्ट और लेखक सुभाष तराण का एक विचारोत्तेजक आलेख प्रकाशित हुआ था उसमें इस बात का दर्द साफ झलकता था कि मुख्यधारा की साहित्यिक परम्पराओं ने लोक अभिव्यक्ति के स्वर को न सिर्फ हाशिए में डाल दिया है, उसके स्थान पर समृद्ध भाषाओँ की साहित्यिक मान्यताओं को उस पर थोप भी दिया है.
शायद यह संकट हमारी नई दुनिया में सभी लोक-भाषाओँ में दिखाई दे रहा है. विस्तार में न जाकर सिर्फ कुमाऊनी के सन्दर्भ में अपनी बात कहूँगा. कुमाऊँ में लिखित साहित्य की परंपरा वैसे तो अठारहवीं सदी के आखिरी वर्षों में सामने आये कवि गुमानी से शुरू होती है मगर इसे विधिवत विस्तार दिया आजादी के बाद छठे-सातवे दशक के कवियों की कविताओं ने. इस बीच मौखिक और लिखित दोनों कविताओं के रूप में अभिव्यक्ति होती रही मगर यह बात भी साफ हो गयी कि लिखित कविता की परंपरा में लोक स्वर धीरे-धीरे गायब होता चला गया.
1973 में जब कुमाऊँ और गढ़वाल विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, इस बात की आवश्यकता महसूस की गयी कि यहाँ की लोक भाषाओँ के साहित्य को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाये.
वर्ष 1972-73 में प्रख्यात गणितज्ञ और बीआइटी के कुलपति पद्मश्री शुकदेव पांडे ने नैनीताल से एक पत्रिका 'उत्तराखंड भारती' का प्रकाशन आरम्भ किया जिसके संपादन का दायित्व मुझे सौपा गया. करीब साल भर के बाद हम लोगों ने उसमें कुमाऊनी में लिखे साहित्य को प्रकाशित किया और तीन रचनाकारों का चयन किया. ये रचनाएँ थीं : चारू चन्द्र पांडे की 'पुन्तुरियां', शेर सिंह बिष्ट 'अनपढ़' की 'पारबती को मैतुड़ा देश' और गिरीश तिवारी 'गिर्दा' की 'रत्ते ब्याण'. तब तक भी यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि कुमाऊनी कविता में लोक कविता के दो स्वर हैं : शहरी और ग्रामीण. पांडे जी की कविताएँ पहली कोटि की और बाकी दो लोगों की कविताएँ दूसरी कोटि की हैं. पहले प्रकार की कविताओं की भाषा पर भी शहरों में बोली जाने वाली कुमाऊनी का प्रभाव साफ दिखाई देता था. आने वाले वर्षों में भी इन तीन कवियों की परंपरा साफ दिखाई देने लगी. इन तीनों कवियों में भी शेर सिंह बिष्ट 'अनपढ़' और चारू चन्द्र पांडे की कविताएँ मुख्य रूप से चर्चा में रहीं. तमाम दूसरे कवियों के साथ जो कविता-संग्रह प्रकाशित हुए उनमें सर्वाधिक चर्चा इन्हीं दो कवियों के संग्रहों की रही.
अस्सी के दशक में जब एम् ए (हिंदी) के एक वैकल्पिक प्रश्नपत्र के रूप में कुमाऊनी भाषा और साहित्य का पाठ्यक्रम बनाया जा रहा था तो एक पाठ्यपुस्तक की तलाश हुई. उन दिनों मैं हिंदी विभाग का अध्यक्ष और संयोजक था और मैंने इसके लिए शेरदा 'अनपढ़' के संग्रह 'मेरि लटि पटि' को सबसे उपयुक्त पाया. यह संग्रह कुमाऊनी कविता का एकदम नया आयाम सामने रखता है. भाषा और विषयवस्तु दोनों ही रूपों में. अपने भौगोलिक परिवेश का जितना जीवंत और प्रभावशाली चित्र इस संग्रह की कविताओं में देखने को मिलता है, वह उस वक्त ही नहीं, आज तक भी दुर्लभ है. मनुष्य की नियति और नश्वरता के साथ-साथ मानवीय संभावनाओं को लेकर जो चित्र इन कविताओं में उकेरे गए हैं, वे इन कविताओं को विश्व-कविता के समकक्ष ला खड़ा करते हैं. इस बीच शेरदा की कविताओं को लेकर अनेक लेख लिखे गए, उनका व्यापक विवेचन हुआ, दर्जनों लघु शोध और पीएच. डी. के लिए प्रबंध लिखे गए. 'अनपढ़' कवि स्नातकोत्तर कक्षाओं में पढाया जाने लगा. और देखते-देखते कुमाऊनी कविता का प्रतिनिधि स्वर बन गया.
मगर देखते-देखते कवि शेरदा में एक अजीब फर्क महसूस होने लगा. मानवीय नियति की कविताओं को शेरदा हास्य-कविताओं की तरह पढ़ने लगे. पाठक और श्रोता तो कविताओं में चित्रित विडम्बनाओं और व्यंग्य को सुनकर हँसता था, शेरदा उनकी हंसी के साथ खुद भी ठहाके लगाने लगे. श्रोता उनकी 'हास्य' कविताओं की लगातार फरमाइश करने लगे, कवि और श्रोताओं की हंसी के बीच देखते-देखते शेरदा एकाएक 'हास्य कवि' बन गए और इस तरह एक गंभीर कवि के रूप में वो हाशिए में चले गए. दुर्भाग्य से यह एक तरह से कुमाऊनी लोक-काव्य-परंपरा की भी असामयिक मृत्यु साबित हुई.
इसी बीच उभरे कुमाऊनी कवि के रूप में गिरीश तिवारी 'गिर्दा'. कुमाऊनी के क्रन्तिकारी कवि. भाषा और काव्य-विषय को देखते हुए गिर्दा हिंदी-उर्दू के कुछ लोकप्रिय कवियों से प्रभावित थे, कुमाऊँ हिंदी क्षेत्र का ही एक हिस्सा है, इसलिए उनकी चर्चा हिंदी के चर्चित कवियों के साथ होने लगी. वे कुमाऊनी के प्रतिनिधि कवि बन गए हालाँकि उनकी कविताओं में कुमाऊँ का लोक-समाज सिरे से गायब था. वह एक तरह से कुमाऊनी के जरिये चित्रित किया गया हिंदी समाज था.
अगर आप कुमाऊनी की काव्य-यात्रा का अवलोकन करें तो एक दशक पहले तक भी यह साफ दिखाई देता था कि हर नया कवि भाषा और संवेदना दोनों स्तरों पर शेरदा को नक़ल करता हुआ साफ दिखाई देता था जब कि आज यह स्थिति गिर्दा के प्रति दिखाई देती है. वास्तविकता यह है कि गिर्दा कभी शेरदा की जगह नहीं ले सकते. वो दो अलग-अलग धाराएँ हैं, एक कुमाऊँ की लोक कविता का विस्तार है जब कि दूसरा जनपक्षीय कविता का विस्तार.
कुमाऊनी कविता आज जो अपने परिवेश की आशा-आकांक्षाओं से कटी हुई दिखाई दे रही है, शायद उसका कारण भी यही है.
लोक भाषा की अभिव्यक्ति लोक समाज के कारण है, इसी कारण उसकी जीवन्तता भी. लोक अपने स्वभाव से ही क्रन्तिकारी होता है, उस पर क्रांति आरोपित करने की कोशिश की जाएगी तो उसका लोक मुरझा जायेगा. शेरदा और गिर्दा दोनों की जगह अलग-अलग है, एक की जगह लोक में है तो दूसरे की मुख्यधारा के समाज और साहित्य में. दोनों अलग-अलग नहीं हैं मगर दोनों की जगहें अलग हैं.

Laxman Singh Bisht Batrohi 

गढ़वाली फिल्मो के बाद दिनेश रावत की उत्तराखंडी चित्रहार में धूम

 
गौरतलब है कि दिनेश रावत उत्तराखंड फिल्म उधोग का एक स्तापित कलाकार है , दिनेश ने गढ़वाल की कई सुपरहिट फिल्मो में अभिनय किया है, अभी हाल में ही उनके गढ़वालीमें दो गाने बैक टू बैक आये है, जिन्हे उहोने खुद गया है , ये दोनों गीत उत्तराखंड की शानदार लोकेसन में फिल्माए गए है जहाँ "खुद त्येरि लगी रे " गीत में  अदिति उनियाल ने और "हरची रे " गीत में पूजा काला ने उनके साथ अभिनय किया है, संगीत मोती शाह जी ने दिया है गीत पदमेंद्र रावत जी ने लिखे है सहगायिका में नम्रता रावत ने अपने कंठो से सजाया है  राज आर्यन  ने म्यूजिक को ऑन  किया है , राज आर्यन ने अपने  सभी गीतों को हर्षिल में फिल्माया है , आज की तारीख में राज आर्यन अच्छे निर्देशक के रूप में उबर रहे है ,
 




तल्ड / तैडू (DIOSCOREA DELTOIDEA)–डॉ राजेन्द्र डोभाल


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तल्ड की सब्जी तो उत्तराखण्ड में शिवरात्रि के व्रत के समय अक्सर खाने को मिलती है तथा बाजार में ठेलियों में अक्सर बिकने को आता है। उत्तराखण्ड में तो यह प्राचीन समय से ही सूखी सब्जी के रूप में खाया जाता है जिसे स्थानीय लोग जंगलों से खोद कर लाते है। प्राचीन समय से ही तथा कई साहित्यों के अनुसार तल्ड निकालने का उचित समय नवम्बर से मार्च तक माना जाता है जब पौधे अधिकतम आकार प्राप्त कर चुका होता है। इस समय तल्ड के कंद में सर्वाधिक मात्रा में Diosgenise तथा Yamogenin की मात्रा पायी जाती है जिसका चिकित्सा विज्ञान अत्यधिक महत्व है।

तल्ड के बेल की तरह पौधा होता है जिसमें जमीन के अन्दर कन्द बनते है जो विभिन्न आकार के होते है। विश्वभर में डाइसकोरिया जीनस अन्तर्गत लगभग 600 प्रजातियां आती है जो डाइसकोरेइसी परिवार से सम्बंध रखती है। उत्तराखण्ड तथा अन्य हिमालय राज्यों में तो यह जंगली रूप में ही पाया जाता है परन्तु इसकी व्यवसायिक क्षमता देखते हुए भारत के कुछ राज्यों जैसे पंजाब, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में इसकी व्यवसायिक खेती की जाती है।
विश्वभर में सामान्यतः यह Tropical क्षेत्र का पौधा है परन्तु कुछ प्रजातियां Temprate क्षेत्रों तक विस्तार पाया जाता है। तल्ड की कुछ जंगली प्रजातियां मानव स्वास्थ्य के लिए Steroidal saponins के मौजूद होने के कारण जहरीली पाई जाती है जिसको Detoxify करके खाने योग्य बनाया जाता है। प्राचीन समय से ही खाने योग्य तल्ड तथा जहरीले तल्ड की प्रजाति की पहचान उसकी पत्तियों से की जाती है क्योंकि खाद्य प्रजाति की पत्तियां विपरीत पाई जाती है तथा जहरीले प्रजाति में alternate पत्तियां पायी जाती है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में तो जहरीली प्रजातियां में भी मौजूद Steroidal saponins को कई रासायनिक क्रियाओं से गुजारने के बाद Steroida hormones तथा गर्भ निरोधक के लिए प्रयोग किया जाता है।

चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में तल्ड का अत्यधिक महत्व है इसमें मौजूद Diosgenin की वजह से ही है जो इसका प्राकृतिक स्रोत है। तल्ड मे लगभग 4-8 प्रतिशत Diosgenin पाया जाता है। जो वर्तमान चिकित्सा विज्ञान में Progesterone तथा Steroid औषधि निर्माण में व्यवसायिक रूप से प्रयुक्त होता है। इसके साथ-साथ Diosgenin से Cortisone को भी Synthesis किया जाता है जो Arthritis के निवारण में प्रयुक्त होता है तथा Diosgenin से व्यवसायिक रूप Stigmasterol, Sapogenins, Cortisone, pregnenolone, Progesterone, बीटा- Sitosterol, Ergosterol बनाये जाते है जो Progestorone को Synthesis करने में सहायक होते है तथा शरीर में विटामिन D3को Synthesis करने में भी सहायक होते है। इसी गुणवत्ता की वजह से आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में लुप्त प्रायः माने जाने वाला तल्ड जिसको की केवल किसी व्रत के मौके पर ही खाया जाता था अचानक विश्व भर में एक नयी पहचान मिलने लगी है। जिसकी वजह से विश्वभर में फार्मास्यूटिकल उद्योगों में इसकी सर्वाधिक मांग रहती है।

तल्ड मे मौजूद Diosgenin जो सेक्स हॉरमोन तथा गर्भ-निरोधक के अलावा बॉडी बिर्ल्डस भी शरीर में टेस्टी स्ट्रोन का स्तर बढाने के लिए प्रयोग करते है। फार्मास्यूटिकल उद्योग में बढती मांग की वजह से इसका अवैज्ञानिक एवं अत्यधिक दोहन होने की वजह से रेड डाटा बुक ऑफ इण्डियन प्लाट्स ने Vulnerable पौधों की श्रेणी में रखा है। सन् 1998 में मोलर तथा वॉकर के सर्वे के अनुसार जंगलों में तल्ड की 80 प्रतिशत संख्या कम हो गयी है और तभी से इसे आशंकित पौधों की श्रेणी में रखा गया था। Convention on International trade in Endangered species (CITES) के अनुसार जंगलों से उत्पादित सभी उत्पादों के निर्यात पर रोक लगा दी गयी केवल व्यवसायिक रूप से उत्पादित उत्पादों को ही Legal Procurement Certificate (LPC) दिया जाता था। सन् 1997 से 2002 तक भारत की आयात-निर्यात नीति के तहत तल्ड तथा तल्ड से उत्पादित उत्पादों का फार्मालेशन के सिवाय पूर्णतः रोकथाम लगा दी गयी थी।

यदि तल्ड की पोष्टिकता की बात की जाय तो यह औषधीय गुणों के साथ-साथ पोष्टिकता के रूप में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है इसमें प्रोटीन 3.40 प्रतिशत, फाइबर-7.50 प्रतिशत, वसा-1.20 प्रतिशत तथा कार्बाहाइड्रेट- 22.6 प्रतिशत तक पाये जाते है।
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अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में एक कि0ग्रा0 सूखे तल्ड की कीमत 58.65 डॉलर तक पायी जाती है। उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती है। प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाये जाते है। इसका विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन तथा व्यवसायिक क्षमता का आंकलन कर यदि व्यवसायिक खेती की जाय तो यह प्रदेश की आर्थिकी का बेहतर साधन बन सकती है।








डॉ राजेन्द्र डोभाल
महानिदेशक
उत्तराखण्ड राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद
उत्तराखण्ड।

Wednesday 23 August 2017

लिम्बा (खटाई Lemon/Citrus) डाॅ राजेन्द्र डोभाल महानिदेशक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद उत्तराखण्ड।

त्तराखण्ड राज्य का अधिकांश क्षेत्र पर्वतीय होने के कारण अपने अनमोल तथा अस्मरणीय स्वाद के लिए वर्षों से ही प्रसिद्ध है। प्रदेश अनेकों प्राकृतिक सम्पदाओं का भण्डार है, जिसमें से खटाई एक प्रमुख फल है। शायद ही कोई ऐसा प्रदेशवासी हो जिसने खटाई का आनन्द ना लिया हो। उत्तराखण्ड प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में खटाई को एक विशेष स्वाद के लिये जाना जाता है। पूरे विश्वभर में चीन, भारत, मैक्सिको, अर्जेन्टाइना, ब्राजील, यू0एस0, तुर्की, इटली, स्पेन, ईरान आदि इसके सर्वाधिक उत्पादक देश है। वर्ष 2012 के आंकडों के अनुसार चीन द्वारा सर्वाधिक 2,300,00 टन तथा भारत द्वारा 2,200,000 टन उत्पादन किया गया। उत्तराखण्ड राज्य में खटाई का सर्वाधिक उत्पादन अल्मोडा जिले में लगभग 8,332 मैट्रिक टन प्रतिवर्ष तक किया जाता है, जिसमें धौलादेवी, हवालबाग, ताकुला, ताडीखेत, द्वाराहाट, चैखुटिया, लमगडा तथा भैसियाछाना आदि प्रमुख है। इसके अलावा उत्तरकाशी, टिहरी, चमोली, बागेश्वर, पिथौरागढ आदि जिलों में भी खटाई का व्यवसायिक उत्पादन किया जाता है।
एशिया मूल के खटाई फल का संबंध Rutaceac कुल से है तथा इसे Citrus limon वैज्ञानिक नाम से जाना जाता है। इस प्रजाति के सभी फलों को सामान्यतः सिट्रस नाम से जाना जाता है जो कि इन फलों में सर्वाधिक पाये जाने वाले Citric acid को भी दर्शाता है। खटाई विटामिन-सी का एक अच्छा प्राकृतिक स्रोत है जो कि शरीर के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। विटामिन-सी की खोज 1912 में की गई थी तथा वर्ष 1928 में सर्वप्रथम प्राकृतिक स्रोत से निकाला गया जिसे बाद में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा शरीर के लिए महत्वपूर्ण तथा आवश्यक दवा की सूची में भी शामिल किया गया। खटाई मे विटामिन-सी की मात्रा 53 मि0ग्रा0/100 ग्रा0 तक पायी जाती है। इसके अलावा खटाई में ऊर्जा-121 किलो जूल, प्रोटीन-1.1 ग्रा0, फाइबर-2.8 ग्रा0, कोलीन-5.1 मि0ग्रा0, मैग्नीशियम- 8.0 मि0ग्रा0, मैग्नीज़- 0.03 मि0ग्रा0, पोटेशियम- 138 मि0ग्रा0, फाॅस्फोरस- 16 मि0ग्रा0, आयरन- 0.6 मि0ग्रा0, कैल्शियम- 26 मि0ग्रा0 तथा जिंक- 0.06 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्रा0 तक पाये जाते है।

नीचे  के  लिंक से खरदिए अपने घर के लिए केदारनाथ का लकड़ी का मंदिर 


खटाई में इसके रसीले भाग के अलावा दो महत्वपूर्ण छिलके वाले भाग होते है जो कि एक फ्लेवीडो तथा दूसरा एल्बेडो होता है। फ्लेवीडो खटाई का सबसे बाहरी भाग होता है जो कि इसेंसियल आॅयल का भी प्रमुख स्रोत होता है और प्राचीनकाल से ही फ्लेवर और सुगंध के लिए प्रयोग किया जाता है, जबकि अन्य दूसरा भाग एलबेडो सबसे बाहरी भाग के अन्दर वाला भाग होता है जो कि फाइबर का एक अच्छा स्रोत होता है, और विभिन्न खाद्य पदार्थो में भी प्रयोग किया जाता है।

खटाई में पाॅलीफीनोलस, टर्पीन्स तथा टेनिन्स आदि प्रमुख रासायनिक अवयव पाये जाते है। औषधीय रसायनों की प्रचूरता के कारण खटाई को परम्परागत रूप से ही विभिन्न स्वास्थ्य लाभ हेतु प्रयोग किया जाता है। इसका सेवन पेट, इटेस्टांइन तथा किडनी आदि के रोगों में लाभदायक माना जाता है। आज भी दूरस्त पर्वतीय क्षेत्रों में खटाई का सेवन बुखार को कम करने हेतु किया जाता है। विभिन्न शोध-पत्रों के अनुसार इसके निरन्तर सेवन का विभिन्न कैंसर रोगों में भी प्रभावी पाया गया है।
यह स्वरोजगार का एक अच्छा विकल्प भी है क्योंकि इससे निर्मित विभिन्न खाद्य पदार्थ जैसे कि जूस, अचार, चटनी तथा अन्य विभिन्न एनर्जी ड्रिंक्स की बाजार में अच्छी मांग रहती है। स्थानीय बाजारों में भी इसकी कीमत लगभग 20-30 रू0 प्रति किलो तक मिल जाती है।

डाॅ राजेन्द्र डोभाल
महानिदेशक
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद
उत्तराखण्ड।

Tuesday 22 August 2017

गिर्दा का लिखा गीत सुनिए नेगी जी की आवाज में "जैता एक दिन त आलू दिन ई दुनि में


सुनिए नरेंद्र सिंह नेगी जी की आवज में गिर्दा का लिखा गीत "जैता एक दिन त आलू दिन ई दुनि में

ततुक नी लगा उदैख, घुणन मुनई न टेक
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
ततुक नी लगा उदैख, घुणन मुनई न टेक
जैता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में....

जै दिन काटुलि रात ब्यालि, पौ फाटला दो कङालो-२
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में....

जै दिन नान ठुलो नि रौलो, जै दिन त्यरो-म्यरो नि होलो-२
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में....

जै दिन चोर नी फलाला, कै को जोर नी चलोलो-२
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में....

चाहे हम नि ल्यै सकूं, चाहे तुम नि ल्यै सको-२
जैता क्वै-ना-क्वै त ल्यालो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता क्वै ना क्वै त ल्यालो ऊ दिन यो दुनी में

Monday 21 August 2017

हे गिर्दा !! GIRDA




हे गिर्दा !!
तुम बहुत याद आते हो
हे गिर्दा !!
तुम अभी भी इन वादियों गाते हो।

तुम पहाड़ के जनमानस के हृदय में रहते हो,
तुम खामोश होकर भी अपनी कविता कहते हो।
अभी वह दिन आया नहीं,
जो तुम लाना चाहते थे।
हाँ वह सब घट रहा है यहाँ,
जिससे तुम चेताना चाहते थे।
लेकिन कोई तो जरुर लेकर आएगा वह दिन।।

तुम एक बार किसी अन्य रूप में पहाड़ में आ जाओ,
दोगले मतलबी हो गए है यहाँ तुम ही वह दिन लाओ।
कवि के रूप में आओ या किसी जननायक के रूप में,
अंधा हो चूका है मानव प्राकृतिक संशाधनो की भूख में।

हम तुमारे साथ चलकर सत्ता के राजाओं से लड़ना चाहते है,
तुम्हारी कविता के बल पर ये हालात बदलना चाहते है।

प्रदीप सिंह रावत "खुदेड़"







कुमाऊं की इन दो बेटियों ने कैसे बदली पहाड़ी किसानों की जिंदगी आज की मेहमान पोस्ट में पढ़िये NEWS ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया के माध्यम से


यह सच है कि उत्तराखंड की दो बेटियाँ कुशिका शर्मा और कनिका शर्मा ने अपनी अच्छी ख़ासी मोटी तनख़्वाह की नौकरी को तवज्जो ना देकर रुख किया अपने गाँव का। दिल्ली जैसे महानगर की सुख सुविधाएं सिर्फ इसलिए छोड़ दी ताकि पहाड़ों को फिर से जीवन दे सकें। जी हाँ कुशिका और कनिका शहर में रहकर अपनी जिंदगी बड़े आराम से गुजार रही थीं लेकिन उन्होंने अनुभव किया कि रोज की भागदौड़ में वो सुकून नहीं था जो पहाड़ की वादियों में था। दोनों बहनों ने तय किया कि वो सब कुछ छोड़कर उत्तराखंड में बसे अपने गाँव मुक्तेश्वर में जाकर गाँव की प्रगति में अपना योगदान देंगी। परिवार का समर्थन मिला और उन्होंने गाँव जाकर रास्ता चुना ऑर्गेनिक खेती के प्रति जागरूकता लाने का। मुक्तेश्वर जाकर दोनों बहनों ने‘*दयो – द ओर्गानिक विलेज रिसॉर्ट*‘ का शुभारंभ किया और स्थानीय लोगों को जैविक खेती के प्रति जागरूक करने लगी। साथ ही अब दोनों बहनों की कोशिश अपना कार्यक्षेत्र विस्तारित करने की है ताकि उत्तराखंड के अन्य गाँवों को भी जागरूक किया जा सके। साथ वे अब कृषि उत्पादों को बेचने के लिये सप्लाई चेन बनाने की भी योजना पर कार्य कर रही हैं। नीचे के लिंक पर पूरी स्टोरी पढ़िए
 कुमाऊं की इन दो बेटियों ने कैसे बदली पहाड़ी किसानों की जिंदगी, आज के युवा जहाँ एक ओर शहरी चमक धमक से प्रभावित हो रहे हैं और शहरों में बसने की चाह में अपनी जन्मभूमि अपने गाँवों से विमुख हो रहे हैं। आए दिन हम पढ़ते हैं कि उत्तराखंड के गाँवों से निरंतर पलायन हो रहा है, गाँवों में केवल बुजुर्ग शेष रह गए हैं। ऎसे में यदि हम आपको बताये कि आज भी कुछ युवा हैं जो महानगरों की चमक-धमक, अच्छी ख़ासी नौकरी और समस्त सुख सुविधाओं को अलविदा कहकर अपने गाँवों का रुख कर रहे हैं, अपने गाँवों को तरक्की के पथ पर अग्रसर करने के लिए कार्यरत हैं तो आपको विश्वास नहीं होगा।

Saturday 19 August 2017

कविता - वैसी मां कहां से लाऊं -- डा. राजेश्वर उनियाल 9869116784


 
क्या आवश्यक है कि मां पर कविता केवल मातृ दिवस को ही लिखी जाए...तो लीजिए प्रस्तुत है कविता - वैसी मां कहां से लाऊं ....

चूल्हा, चौकी मैं सजाऊँ
जदेरू उरखेला मैं लगाऊं,
पर कोई मुझे यह बताए
वैसी मां कहां से लाऊँ ।

गाय बछिया फिर मैं पालूं
घर द्वार में उन्हें बसा लूं,
पर दूध दोहती शाम सबेरे
वैसी मां कहां से लाऊं।

घर को रोशन जगमग कर दूं
अंधकार को दूर भगा दूं,
पर सिल्ले जलाकर मुझे पढाए
वैसी मां कहां से लाऊँ ।

सुंदर हार, मोतियों की माला
कंगन चूडी बिंदी लाऊँ,
पर रिंगाल से बाल कटोरती
वैसी मां कहां से लाऊँ ।

टी.वी. रेडियो होमथियेटर
वायलेन, वीणा सब मैं लाऊँ,
पर थपकी देकर मुझे सुलाए
वैसी मां कहां से लाऊँ ।

घुटने जब मेरे छिल जाएं
पहले मारे और चिल्लाए,
फिर अपने आंसू बहाए
वैसी मां कहां से लाऊँ ।

लौट सकता हूं गांव में अपने,
बुन सकता हूं सारे सपने
पर द्वार पर खडी बाट जोहती
वैसी मां कहां से लाऊँ ।

जदेरू(हाथ चक्की), उरखेला(धान कूटने का स्थान), सिल्ले (लौ प्रज्वलित करने वाली लकडी),रिंगाल(देशी कंघी)

डा. राजेश्वर उनियाल  9869116784
 






Thursday 17 August 2017

"ढोल" - सत्य घटना पर आधारित आँखों देखी By Devesh Rawat


घटना तिथि-:30/07/1983
शनिवार रात्रि 7 बजे
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यह एक सत्य घटना पर आधारित पात्रों के नाम वही है जो थे पर घटना के घटित गाँव का नाम बदला हुआ है। बाकी घटना की तिथि बार दिन समय और ग्रामीण परिवेश यथार्त तथाकथित है।

आम दिनों की तरह आज का दिन भी मेरा थकावट भरा था !! मै शिवू भाई, प्रभु काका, जमना दास, ताऊ, छैला भाभी, हरी भाई, ध्याडी करके बगल ढुङ्गदार गाँव से लौट ही रहा थे !! कि जोर-जोर की आवाजें सुनाई देने लगी। कुछ औरतों की कुछ पुरूषों की, वैसे हमारे गाँव में ये कोई नयी बात नही है!! झगड़े होते ही रहते है ! पर आज किसी औरत की आवाज में दर्द सुनाई दे रहा था। कुछ अजीब सा लगा। पर लपक के मैने भी कदम तेज कर दिए। वैसे मेरे गाँव का रास्ता पत्थरों को बिछा कर बनाया हुआ है चौड़ाई करीब तीन फिट है कुछ सीडीनुमा तो कुछ समतल है जैसे जमीन वैसा रास्ता।

रास्ते के दोनों तरफ लोगों के खेत है किसी खेत में झंगोरा है किसी में क्वाद (मंडवा) गन्दरू, कोणि, मुंगरी, मूली,राई, लगभग सब प्रकार की खेती है । उखड़ी (उपराड) की खेती है पूरी सोणी (रोपाई) की कुछ खेती है पर बहुत दूर है । लोगों की ठंगरी में कखड़ी, गुदड़ी, चचिंडा, लगे हुए थे भादौ के महीनों में अक्सर हमारे गाँव में सब्जी की बहार आ जाती थी। बाकी दिनों में सुकसा ही खाने पड़ते थे । वैसे कल तक तो झेड (लगातार बारिश) पड़ी रही थी आठ दिन तक बारिश बंद नही हुई थी। पर कल से मौसम ठीक था। हम ध्याडी वालों के लिए अच्छा मौसम था।
सब से नीचे गाँव के दो परिवार पण्डितों के थे जो कि मलाण गाँव से किसी जमाने में हमारे गाँव के पदान जी लाये थे। वही हम लोगों के पित्र बामण (पण्डित) थे। फिर कुछ खेत छोड़ने के बाद तीन खड़ीक के पेड़ है। इन पेड़ों के चक्कर में कही बार मुकदमा भी हो चुका है पर पेड़ वैसे ही है जैसे थे। मुकदमे चल ही रहे थे।
गाँव में कुल सतावन परिवार है । जिनमें से चार परिवार हरिजन (औजी) दो पण्डित एक परिवार जोगी समाज का है । बाकी पचास परिवार ठाकुर के थे। ठाकुर में कुकल्याल रावत और रिखोला नेगी थे। पर दबदबा रावतों का ही था क्यों कि वह चालीस परिवार थे इस गाँव के मूलनिवासी रावत ही थे बाकि बहार से आकर बसे थे (रावतों ने ही गांव बसाया)
पदान और सरपंच भी रावत ही थे। उनको अपने ज्यादा होने का घमंड।

मैं अपने बारे में बताऊं तो मेरा नाम चमन लाल है!! बाकी बताने की जरूरत नही कि मै किस जाति का हूँ। पीछे लाल लगने से आप समझ गए होंगे!!

हमारे गाँव में दो पंदेरा थे । एक गाँव के नीचे जो कि गर्मियों में सूख जाता था । और एक गाँव से ऊपर जो कि हर मौसम में पानी देता था। पर हम लोग एक ही पंदेरा का पानी पीते थे । जिसमें गर्मी में पानी नही आता था। तब हम गर्मीयों में पानी गदेरे से लाकर पीते थे। जहाँ पानी तो भरपूर था पर नजाने कितने गाँवों का मैला आता होगा। गर्मी में लोग क्याडा (भीमल की लकड़ी जिस की चाल से रस्सी बनती है और डंठल से आग जलाने का काम डालते है ) जिस में कीड़े पड़े हुए रहते थे और दुर्गंद भी बहुत आती थी। पर करें तो क्या करें हम औजी है छुआ छूत अपने चरम पर थी। भले आज़ादी मिल गयी थी पर अभी भी हमारे साथ वैसा ही सलूक होता था। जैसे आजादी से पहले।

हम लोगों का घर गाँव से दूर था !! पर रास्ता गाँव के बीच से होकर जाता था। कही बार हमें ठाकुर लोगों को अनचाहे बिनचाहे रास्ता देना पड़ता था । चाहे कुछ भी हो पर किसी को छू नही सकते है वरना हाल वो होगा जो मेरे पिताजी का हुआ था। मेरे बुबा (पिताजी) ने गलती से एक दिन किसी छः साल की ठाकुरों की एक लड़की को पानी पिला दिया था वो लड़की शाम को खेल के आ रही थी तो रास्ते में हमारे घर पर उस ने पानी मांग लिया बुबा जी के मना करने के बाद भी वह नहीं मानी तो हमारे चौक में पानी का गगरा (कलश) रखा हुआ था उस ने उसमें से पानी पी लिया। किसी निर्दयी ऊंची नाक वाले आदमी ने देख लिया उस दिन से हमारा हुक्का पानी बंद हो गया। और बुबा जी (पिताजी) को मार अलग पड़ी सो अलग। उसी मार से बुबा जी की जांघ की हड्डी टूट गई थी चार साल वह वैसे ही झेलते रहे आखिर बल कैंसर हो गया था उस के साथ वह पिछले ह्युन्द(सर्दी) में सारे दुःख दर्द को साथ लेकर परलोक सिधार गए।

उस दौर में वहां हॉस्पिटल की सोच भी नहीं सकते थे कि उन्हें वहां दिखाते पर मेरे मामा उन को एक बार चंडीगढ़ ले गए थे कुछ इलाज तो हुआ। इलाज के पैसे के लिए मामा जी चंडीगढ़ में किसी कोठी में काम करने लगे। तब परिवार में मै और मेरी माँ थी । पर छोड़ो पुरानी बात ये तो एक ब्यथा है सब गाँव में अधितर परिवारों की यही ब्यथा थी।
तब हमारे गाँव में स्कूल तो नही था पर बुलेखा गांव में स्कूल था । जो दर्जा पांच तक था। बाकी की पढ़ाई के लिए बमण गाँव जाना पड़ता था । और अगर किसी ने उससे आगे की पढाई करनी है तो रिखणीखाल जाना पड़ता था। जब मै तीसरी कक्षा में पढ़ता था तो दलिया खाने और मीठा भात खाने के लिए मेरी भी एक ऊँची जाती के लड़के से लड़ाई हुई थी । मैने किसी के बोतल से पानी पी लिया था वो गुरु जी का बेटा था पर अब तीस (प्यास) लग गई थी तो मै करता भी तो क्या ? दलिया खाने के लिए हरिजनों को अलग बिठाया जाता था। पानी भी हमें अपने लिए घर से लाना पड़ता था। स्कूल का पानी नहीं पी सकते थे। मैंने पानी क्या पीया था उसकी बोतल से बस उसके बाद तो हम स्कूल में कुछ साल पहले चुना (सफेदी) करने गए थे।

जैसे-जैसे मैने गाँव में प्रवेश किया लडाई की आवाजें बहुत तेज आने लगी। मै भागा-भागा गया तो सामने का नजारा देख के दंग रह गया मालगुजार बूबा जी मेरी चैता काकी के बाल खींच कर उन्हें डंडे से मार रहे थे। भरतू काका का पटोल छण भंयरा मकान था (पठाल वाला ग्राउंड फ्लोर) इस घटना के मूकदर्शक तो बहुत थे पर कोई बिरोध करने वाला नही था किसी के पास इतनी हिम्मत नही थी कि कुछ बोल दे। सब दर्शक बने हुए है।

चैता काकी के तीन बेटियां (जो उम्र में बहुत छोटी थी)।अपनी मां से लिपट हुए लिपट कर रो रही थी। किसी ने भी सुलार नही पहनी तो किसी ने झगुला नही पहना है। पर मालगुजार बूबा जी उन बच्चों को भी लात मार के इधर उधर फेंक रहे थे। काकी की गत्तीदार ख़दर की धोती के दोनों पल्ले खुल गए काकी का ब्लाउज भी फट गया था। काकी चिल्ला रही थी पर किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। मालगुजार काका का गुस्सा कहें या दादागिरी लोगों ने पहले भी देखा था पर आज किसी औरत के साथ होता इतना जघन्य अपराध सब की रूह कंपकपा रही थी।
मैने मालगुजार बूबा के आगे घुटने के बल जमीन में बैठकर हाथ जोड़े और काकी को छुड़वाने की कोशिश की। पर माल गुजार ने मुझे भी लात मार दी चल हट डुमडे की औलाद कहकर मुझे चुप रहने को कहा। मै जमीन पर गिर पड़ा। उन्होंने अभी तक काकी के बाल नही छोड़े थे। मैने दोबारा कोशिश की और फिर नाकाम रहा अपनी काकी को उनके चुंगल से छुड़ाने में। मै मिन्नत कर कह रहा था कि काकी को छोड़ दें चाहे मुझे मार लें। वैसे मै पहली बार ही गाँव में लात नही खा रहा था मुझे आदत सी हो गयी थी गाँव वालों के लात खाने की । पर आज कुछ गजब ही हो गया था। बूबा जी ने जैसे ही काकी को लात मार के कोने में फेंका काकी की धोती खुल गई और गरीबी में जहां सात बच्चों के लिए दो जून की रोटी नही जुटा पाते वहाँ पेटिकोट कहाँ से नसीब होता। पूरे बदन पर दो ही कपडे तो थे एक खुल गया दूजा फट गया। लोग हँसी उड़ा रहे है । काकी अपनी लाज बटोर रही थी। नाकाम कोशिश मैने भी की पर तब तक तो बिना बाजार भाव के इज्जत नीलाम हो चुकी थी। जैसे-तैसे हम ने स्थिति को नियंत्रण में लिया।
और मैने काकी को धोती लपेटी काकी को दूर ले जाने की कोशीश की पर बूबा जी ने मुझे भी पीछे से लात मारी और जमीदोज कर दिया फिर काकी की उलझी हुई धोती खोली ओर छिटगा के बदन से दूर चौक से नीचे मुंगरेटा (मक्के का खेत) में फेंक दी। काकी अब निर्वस्त्र बैठी थी तमाशबीनों के जैसे दिल की हो गई आज उन के लिए मदारी का खेल चल रहा था। तब तक काकी के बच्चों के रो-रो के बुरा हाल हो चुका था। बड़ा बेटा रोशन भाग के काका जी को बुलाने भागा जो कि नीचे से आते हुए दिख रहे थे। वैसे काका जी का काम बाँस की टोकरियाँ,सुप्पु (फटगेणु) बनाने का काम था। और बाकी काका जी शादी ब्याह के समय ढोल दमाऊ बजाने का काम थे।
वैसे किसी जमाने में मेरे बुबा (पापा) भी यही काम करते थे कास्तकारी और शिल्पकारी का वो मण, ठेकी, नाली,प्रर्या बनाते थे बदले में लोग हम को डड्वार (मजदूरी के बदले अनाज देना) देते थे और आज भी वही है पर कोई इज्जत दे दे तो समझौ चाँद मिल गया।..........


इतने में काका जी भी पहुंच गए थे काका जी ने फ़्तगी और कुर्ता पहना हुआ था कांधे पर पीछे फ़्तगी में लांठी टँगी थी सुलार (पजामा) का एक बाजू नीचे, एक बाजू ऊपर हो रखा है । हांपते-हांपते काका चौक में नग्न पड़ी काकी पर लिपट के अपनी फ़्तगी से काकी को ढक दिया। काकी की धोती लाये खेत से और काकी के सिर पर फेंक के मालगुजार बूबा के पांव पर अपनी टोपी रख दी । काका जी छोड़ दो ब्वारी को क्या कोई गलती हुई है तो मुझे मार लो पर उसे छोड़ दो क्या गलती हुई है उससे बोलो काका जी,,,? मेरे काका जी रो रहे थे चिल्ला रहे थे उन की उम्र भी करीब 35 साल थी पर बदहाली और दमें की बीमारी नें उन को इस कगार पर ला के खड़ा कर दिया कि वो 50 साल के लगते थे फिर अनपढ़ और बेरोजगारी ने परिवार का लाकर सीमा रेखा के पार पहुंचा दिया था।
मालगुजार बूबा ने काका जी को बोला !! तुझे मैने पहले ही बोला था कि ढोल जहां मै बोलूंगा वहीं ढोल बजेगा तो तूने मेरे दुशमन के घर में उसके बेटे की शादी में ढोल क्यों बजाया ?? तूने मेरा कहना नही माना तो अब भुगत उसकी सजा। तब पहाड़ों में औजी समाज को ढोल गाँव वाले देते है बजाने के लिए वो उससे ही वह अपनी जीविका चलाते थे। पर ढोल पर मालिकाना हक़ गाँव वालों का होता था। ढोल तांबे से बना हुआ एक बाद्य यंत्र होता है जिस पर बकरे की खाल लगाई जाती है पूजा मंत्रणा से ढोल बनता है बहुत ही खर्चीला काम है ये इस ढोल में 12 ताल होते है जो कि अलग अलग मौकों पर अलग अलग समय पर बजाए जाते है ढोल की सब से बड़ी बिद्या ढोल सागर है जिस किसी को इस बिद्या का पूर्ण ज्ञान हो गया समझो वो पूर्ण अनुरागी है। ढोल के साथ दमाऊ होता है जिस के बिना ढोल अधूरा है जैसे शक्ति के बिना शिव वैसे ही दमाऊ के बिना ढोल।

पर आज ये ढोल जान का दुश्मन बन गया था!!
इतने में मैने जैसे -तैसे काकी की धोती संभाली सभी बच्चों को चुप कराया और चुपके से काकी को घर की और जाने को कहा। पर काकी कह रही थी चमन तू अपने काका का ख्याल रख मुझे मत देख कोई बात नही मेरे को मारा पर तेरे काका जी कमजोर है उन को कल ही खून की उल्टी भी हुई थी बाबू तू काका का ख्याल कर छोड़ दे मुझे मै ठीक हूँ।
मै भी काकी की बात मान गया और भाग के फिर चौक में काका के पास गया मालगुजार बूबा जी मेरे काका को पीट रहे थे । काका सिवाय मार खाने के कुछ भी नही कर पा रहे थे। वो सिर्फ गरीबी लाचारी से बंधे हुए थे इतना मार खाने के बाद भी काका ने एक आंसू नही गिराया । मालगुजार जी ने काका को एक लात मारी और काका का कुर्ता मालगुजार जी के हाथ में और काका चौक किनारे बने दीवार पर जा गिरे और काका जी का सिर पत्थरों पर जा लगा । दीवार नई थी पत्थर नुकीले थे और काका गिरते ही बेहोश हो गए खून जैसे कि फवारा बन गया।
मेरी आँखें फटी की फटी रह गई। मेरा मुहँ खुला का खुला रह गया जीवन में दुखः बहुत देखा पर खून आज पहली बार देखा था। मार खाने का तजुर्बा बचपन्न से था पर खून नही देखा था। मौके की नजाकत को भांपते हुए तमाशबीन लोग उल्टे पाँव चलने लगे गए मालगुजार जी भी अपनी मूंछों को ताव तो दे रहे थे पर डर से पीछे हट रहे थे । अब तक मेरे काका जी खून में सन गए थे । मै उन से लिपट गया अपने गले से गमछा निकाला और काका के सिर से निकल रहे खून को दबाने लग गया। सभी लोग भाग चुके थे और मै अकेला काका को संभाल रहा था। काकी को आवाज लगाई पर घर दूर होने की वजह से किसी ने नही सुनी........

अब आगे जारी है
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लेखन-:देवेश आदमी (प्रवासी)
पट्टी पैनो रिखणीखाल
(देवभूमि उत्तराखंड)
सम्पर्क-:8090233797

भांग (कैनावीस साटाइवा) एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण डा0 राजेन्द्र डोभाल महानिदेशक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् उत्तराखण्ड।


कुछ समय पहले मेरे द्वारा यह वादा किया गया था कि भांग पर अपना वैज्ञानिक दृष्टिकोण आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा क्योंकि वर्तमान में उत्तराखण्ड सरकार द्वारा भांग की खेती को स्वीकार्य किया गया है लेकिन बहुतायत मंु हमारा समाज भांग की खेती को नशे के रूप में जानता है।
वस्तुतः दुनिया के करीब 170 देश इसकी खेती करते हैं एवं चीन, कनाडा एवं फ्रांस में इसकी खेती रेशे के लिये की जाती है। बाकी अन्य देशों के द्वारा इससे उत्पादित होने वाले लगभग 20,000 से अधिक उत्पादों को औद्योगिक रूप में तैयार किया जाता है।

चीन में यहाँ तक कि इससे बायोप्लास्टिक बनाया जा रहा है एवं आंकड़ों के अनुसार इससे High Value Health Product तैयार किया जाय तो इसके तेल की कीमत का रू0 20,000 से 25,000 अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में मिलने की संभावना है।

भांग का वैज्ञानिक नाम कैनावीस साटाइवा है तथा यह कैनावेसी कुल का पौंधा है। मुख्य रूप से भांग की दो प्रजातियां पायी जाती है कैनावीस इनडिका जो कि छोटी तथा गहरे हरें रंग का पौधा होता है तथा कैनावीस सटाइवा जो कि अत्याधिक मात्रा में पाया जाता है। उत्तराखण्ड राज्य में यह तराई भावर क्षेत्रों से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों तक प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण औषधीय पौंधा है, जिससे सम्पूर्ण विश्व में सबसे पुरानी फसल के रूप में जाना जाता है। भांग का सर्वाधिक उपयोग रेशे के रूप में चीन में किया जाता है तथा विश्व के अन्य देशों फ्रंास, यू0के0, कनाडा, रोमानिया, हंगरी, कोरिया तथा अन्य कई देशों में भांग का औद्योगिक उत्पादन किया जाता है। वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में कनाडा के अन्तर्गत भांग का सर्वाधिक क्षेत्रफल तथा उत्पादन किया जाता है। विश्व बाजार में भांग से उत्पादित लगभग 20 हजार से अधिक उत्पाद औद्योगिक रूप से तैयार किये जाते हैं जैसेः- हिम्प मिल्क, हिम्प सीड प्रोटीन, फाईबर, जीयो टेक्सटाइल्स, बायोप्लास्टिक, एमीमल बेडींग, बायोफ्यूल, मेडिसीन, सौन्दर्य प्रशाधनों तथा भांग का तेल आदि किया जाता है। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण औद्योगिक एवं औषधीय पौंधा है तथा सम्पूर्ण विश्व में सर्वाधिक बाजार मांग व उगाये जाने वाला एक मात्र फसल है। भांग के तेल का वैज्ञानिक अध्ययन तथा औषधीय एवं औद्योगिक गुणांे के आधार पर ही कई देशो मंे भांग की फसल के उत्पादन को मान्यता प्राप्त है।
भांग के तेल में लगभग 15 प्रकार के फैटीएसीड प्रचूर मात्रा में पाये जाते है तथा सम्पूर्ण बीज में 29.6 से 36.5 प्रतिषत तेल की मात्रा पाई जाती है। जिसमें उमेगा- 6 लेनोलिक एसीड सर्वाधिक (56.9) पाया जाता है तथा उमेगा-3 (20.4) प्रतिशत तथा उमेगा-9 (11.4) प्रतिशततक पाया जाता है, जिसमे उमेगा- 6, 3 एवं 9 के अलावा अन्य फैटीएसीड के साथ-साथ 20-25 प्रतिशत प्रोटीन, 20-30 प्रतिशत काबोहाइड्रेड, 25-25 प्रतिशत तेल तथा 10-15 अधुलनशील रेशा भी पाया जाता है। उक्त सभी आवश्यक तत्वों के विद्यमान होने के कारण भांग सम्पूर्ण पोषकता का पूरक भी माना जाता है। भांग के तेल की औषधीय एवं औद्योगिक मांग के कारण विश्व स्तर पर इसकी मांग लगातार बढ़ रही है।
उमेगा- 6, 3 एवं 9 के प्रचूर मात्रा में उपलब्ध होने के कारण इसका उपयोग हृदय सम्बधी बीमारी, दिमागी संतुलन, शारीरिक, विकास, ओस्टोपोरोसिस, पाचन क्रिया तथा उच्च रक्त चाप के निवारण के लिए प्रयोग किया जाता है। डाॅ0 ईडवर्ड की वर्ष 2015 की रिपोर्ट के अनुसार उमेगा- 6, 3 एवं 9 उपरोक्त सभी बीमारियों के निवारण के साथ-साथ मानव शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी मजबूत बनाता है। चूंकि उमेगा- 6, 3 एवं 9 मानव शरीर में स्वतः नहीं बनते हैं जिससे भांग का तेल इसका एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत है तथा मानव पोषण के लिए फिश आॅयल का भी उपयुक्त विकल्प माना जाता है। इसके तेल में विद्यमान 57 घटकांे में से 90.5 प्रतिशत घटकों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जा चुका है, जिनमें से मुख्य घटक E-Caryophyllene (19-6&26-1%)] Lemonene (4.1- 15.5 %)] Caryophyllene Oxide (2.0- 10.7 %)] E – Farnesene (4.8-8.5%)] Humulene (5.4-7.8%), Pinene (10.7%), Myrcene (0.8-6.0%) आदि पाये जाते हैं
उपरोक्त घटकों के अलावा विटामिन E – 90, गामा टोकोफेराल- 85, फासफोरस-1160, पोटैशियम – 859, मैग्नीशियम- 483, कैल्शियम – 145 मी0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम भी पाया जाता है। विटामिन- D की प्रचूर मात्रा उपलब्ध होने के कारण भांग के तेल का उपयोग त्वचा रोग, शुगर, एक्जाइमा तथा अस्टोपोरोसिस आदि बीमारियों के उपचार हेतु भी प्रयोग किया जाता है। औषधीय उपयोग के साथ-साथ भांग के तेल का विभिन्न औद्योगिक उत्पादों जैसे:- शैम्पो, पेंट, साबुन, सौन्दर्य प्रसाधन, बाॅडीकेयर तथा विभिन्न जीवाणु नाशक त्पादों की निर्माण के लिए प्रयोग किया जाता है।

उपरोक्त सभी महत्वपूर्ण पोषक, औषधीय एवं औद्योगिक गुणों के कारण ही विश्व बाजार में भांग का उत्पादन तथा क्षेत्रफल लगातार बढ़ रहा है। चीन, कपास उत्पादन के बजाय भांग सेे रेशा उत्पादन पर जोर दे रहा है। अन्य देश यू0के0, कनाडा, रोमानिया, हंगरी, कोरिया, तथा आस्ट्रेलिया भी भांग के औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा दे रहा हैI वर्तमान में भांग आधारित 20 हजार से अधिक उत्पाद जिसमें टैक्सटाइल तथा बायोप्लास्टिक (Linoleum) का भी उत्पादन किया जा रहा है। वर्तमान मंे ैSynthetic प्लास्टिक के पर्यावरण पर हानिकारक दुष्प्रभावो को दृश्टिगत रखते हुए भांग से तैयार बायोप्लास्टिक के उत्पादन पर औद्योगिक रूप से जोर दिया जा रहा है जोकि विश्व बाजार में एक अत्यंत महत्वपूर्ण फसल के औद्योगिक उपभोग के लिए बेहतर विकल्प माना जा रहा है।

यू0एन0ओ0डी0सी0 रिपोर्ट के अनुसार जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “Bulletin on Narcotics” जारी करती है, ने विश्व स्तर पर भांग उत्पादन, निर्यात आदि पर नजर रखती है के अनुसार वर्ष 2003 में 2,31,000 हैक्टेयर में भांग की खेती की जा रही थी जिसका 30 हजार टन उत्पादन था। यू0एन0ओ0डी0सी0 की वर्ष 2004 की रिपोर्ट के अनुसार विष्व के 176 देशो में भांग औद्योगिक उत्पादन किया जा रहा है तथा वर्ष 2002 – 2006 तक 122 देशो में भांग का उत्पादन रेजिंन के अलावा अन्य औद्योगिक उत्पादों के लिए किया जाता रहा है केवल 65 देशो में ही भांग का उत्पादन रेजिंन के लिए किया जाता रहा है। वर्श 2008 तक भांग उत्पादन हेतु कुल 6, 41, 800 हैक्टयर क्षेत्र अच्छादित रहा है। जो कि कुल 13, 300 से 66, 100 मैटिक टन उत्पादन तथा 2, 200 – 9, 900 मैट्रिक टन रेजिंन उत्पादन करता था। यू0एन0ओ0डी0सी0 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2008 से विश्व स्तर पर भांग आधारित औद्योगिक उत्पादांे की बाजार मांग व उपयोगिता लगतार बढ़ने की वजह से अन्य कई देश अमेरिका, अफ्रीका, पश्चिमी यूरोप भी सम्मलित हो रहें हैं। एफ0ए0ओ0 की वर्ष 2007 की रिपोर्ट के अनुसार चीन विश्व स्तर पर भांग के तेल उत्पादन में अग्रणीय स्थान पर था। जबकि 1961-1975 तक टर्की विश्व स्तर पर भांग के तेल निर्यात में अग्रणीय स्थान रखता था। तत्पश्चात लेबनान 1977 – 1985 तक प्रमुख रहा है। चीन विश्व स्तर पर भांग के तेल के उत्पादन एवं निर्यात में 77 प्रतिशत 12, 200 मेट्रिक टन, 1986 में प्रमुख योगदान रहा है। सोेवियत संघ/रूस का वर्ष 2005 तक भांग के तेल का उत्पादन 10, 300 मैट्रिक टन तक पहुंचा चुका है। जबकि वर्ष 2007 में कनाडा द्वारा 306 मेट्रिक टन भांग के तेल का निर्यात किया गया है, जिसमें 90 प्रतिशत केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में खाद्य पदार्थांे तथा औद्योगिक उपयोग हेतु किया गया है।

चूंकि उत्तराखण्ड प्रदेश में भांग तराई भावर से उच्च हिमालयी क्षेत्रों तक प्राकृतिक रूप से पाई जाती है तथा औषधीय एवं औद्योगिक उपयोगिता की वजह से इसका उत्पादन प्रदेश में बंजर भूमि तथा बेनाप भूमि का सदुपयोग कर औद्योगिक रूप से किया जा सकता है। साथ ही यह अत्यन्त सहिष्णु फसल होती है जिसमें विपरीत वातावरण में भी उत्पादन देने की क्षमता होती है तथा जंगली जानवरों, बंदरों एवं कीट व्याधि का प्रकोप भी नहीं पाया जाता है जिससे कम लागत में अधिक मुनाफा लिया जा सकता है। अगर उत्तराखण्ड में भांग की खेती एक कारगर नियंत्रण में की जाय जिससे इसका दुरूपयोग ना हो तो यह एक उपयोगी alternate approach होगी मानव-जंगली जानवरों का संघर्ष रोकने हेतु।


डा0 राजेन्द्र डोभाल
महानिदेशक
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्
उत्तराखण्ड।

Wednesday 16 August 2017

सत्य घटना पर आधारित - सोणी ताई की प्रसव पीड़ा भाग - तीन लेखक -देवेश रावत आदमी


जैसे कि मैने कल बताया था कि हम लोग छन्नि (गौशाला) में उत्सुकता से जाते है कि सोणी ताई को दो बच्चे हुए है और हम वहां पहुंचे ही थे कि वहाँ का मंजर देख के हमारे पैरों तले जमीन खिसक गई हम सन्न रहे गए । हम सब निशब्द हो गए थे। भुत की तरह पदान दादा जी खड़े थे। कुछ औरतें रो रही थी कुछ सनसनाहट कर रही थी ताई एक रस्सी वाली खटिया पर लेटी हुई थी। उन के पांव हम को छन्नि के बाहर से दिखाई दे रहे थे, उनकी खाट के बगल में छोटी से खटिया थी जिस पर दोनों बच्चे जिन्हें खाकी रंग के कपड़े पहनाये हुए थे। नर्स उन को गर्म पानी से धो रही थी, कोई किसी से कुछ नही बोल रहा था। माहौल बडा डरावना बिचित्र हो रखा था। हम गौशाला के बाहर से अंदर झाँक रहे थे। उनके गाय बच्छी, बैल, भैंस वहीं बाहर बंधी हुई थी। दरवाजे के ही दाहिन् ओर बने जवठ में एक चिमनी जल रही थी,बांयी ओर दरवाजे के एक घुगति (खुंटी) दीवार पर थी जिस में ताई जी के कपड़े टंगे हुए थे। हम उत्सुकता से अंदर झांक कर देख रहे थे। गौशाला का दरवाजा करीब 4 फिट रहा होगा। और गौशाला के अंदर की ऊँचाई 5 फिट कोई खिड़की नही को रोशनदान नही पर आज ये परिस्थिति का मारा गौशाला हम को जीवनदायनी सी लग रही थी। हम जैसे रजवाड़ों में खड़े थे हम को गोर्वांगित होने का शुभ अवसर जो मिलने वाला था पर अभी भी जान वहीं अटकी हुई थी जहां पिछली रात 5 बजे अटकी हुई थी।
इतने में डॉ गौशाला से बाहर आया और एक कपड़े से हाथ साफ़ करते हुए बोला.....
 
इन के साथ कौन है...? हम सब ने कांपते हुए लड़खड़ाती जुबान में बोला हम है। और झबरू ताऊ जी है जो कि अंदर ही है ताई जी के पास।

वह बोलें झबरू जी अब इस हालत में नही रहे कि कुछ समझ पाए।

मरीज इस दुनियां में न ही रहा उन्होंने दूसरा बच्चा पैदा होते ही दम तोड़ दिया। हम लोग दहाड़ के रोने लगे कोई इधर गिरा कोई उधर गिरा । दादा जी भी सिर पकड़ के रो रहे थे। सब बेसुध हो गए हमारे साथ एक मात्र महिला शीशिला भाभी थी जो सोणी ताई की सहेली भी थी वो पहले से ही बेहोशी की हालत में पड़ी हुई थी।
झबरू ताऊ को खोजा तो वह ताई का सिर मलास रहे थे (सहलाना) वह अभी भी ताई जी को ढांढस बंधा रहे थे कि सब ठीक हो जाएगा तो कुछ देर हिम्मत और रख।
सत्य घटना पर आधारित सोणी ताई की प्रसव पीड़ा भाग - 1 इस लिंक पर पढ़िए
ताऊ जी जैसे अब दूसरी दुनियाँ में थे वह समझना ही नही चाहते थे कि हुआ क्या है वह बस ताई के सिर को सहला रहे थे। हम अंदर गए तो ताऊ जी मेरे से बोले क्या हुआ बेटा सब कुछ ठीक है तू रो मत तुम लोगों ने बहुत मेहनत की है । भगवान तुम सब को लम्बी उम्र देगा तुम पर मुझे गर्व है तुम को मेरी और तुम्हारी ताई दोनों की उम्र लग जाये इस दुनियां में मैने कभी किसी का बुरा नही किया हमारा भी कोई बुरा नही चाहेगा।
सब मेरे हितैषी है पर तुम्हारी ताई बस एक बार आंखे खोल ले.......
ताऊ जी ताई को सुरु नाम से बुलाते थे उन लोगों ने कसम खाई थी कि पहला बेटा हो या बेटी नाम सुरेंद्र या सुनीता रखेगे जैसे सब लोग नव जीवन की आस लगा के भविष्य के सपने देखते है। भविष्य के ताने बाने बुनते है। ख़्वाबों की दुनिया सजाते है। सुखी नदी में भी नाव उतारते है। वैसे ही उन लोगों ने भी सोचा था। पर प्रकृति को उन की नियति को शायद ये मंजूर न था। साथ यहीं तक था ताई के पास । सांसे इतनी ही थी। ताई जैसे अपनी सांसे दोनों बच्चों को देकर चली गई थी ताऊ जी को वो दर्द दे गई जिस की उन्हों ने कल्पना भी नही की थी......
ताऊ जी बोल रहे थे सुरु देख दो बच्चे हो गए हमारे हम ने मांगा एक था पर बूंगी देवी ने हम को दो दे दिये। तुम बोलती थी मुझे लड़का चाहिए और में बोलता था लड़की देख सुरु तू शर्त जीत गई मै हार गया अब तो जो मांगेगी वह खरीद के दूंगा पर तू आंखे खोल सुरु !! आंखे खोल!! देख कितने लोग आए है तुझे देखने के लिए बहुत भीड़ हुई है इक्ट्ठा सुरु देख बाबा देख।.......
पर कुछ नही हुआ ताऊ जी की आंसुओं का ताई के बे-जान शरीर पर ताऊ लगभग पागल की स्थिति में पहुंच गए थे। ताऊ के चप्पल और लांठी तो रास्ते में ही छूट गए थे टोपी भी कहीं झाड़ियों में अटक गई थी सुलार (पजामा) कमर तक गीला था नीचे से पजामा फट भी चुका था। फ़्तगी और गमछा ताई के खून से तर था ताऊ को कुछ भी होश नही था।

नेगी जी के इस गाने को सुनकर प्रत्येक फौजी की आँखों में आंसू आ जायेंगे !

नेगी जी का एक ऐसा भाव रस का एक ऐसा गाना जिसकी प्रत्येक लाइन को सुनकर आँखों में आंसू आ जाते है, भले ही पुराणी पीढ़ी ने इस गाने को अपने दौर में बहुत सुना होगा आज की पीढ़ी को गाना सुनना जरुरी है, यह एक ऐसा गाना है जो आपके मन में देश भक्ति का भाव जगाता है, यहाँ गाना सदा बहार गाना है इसका महत्व अब और ज्यादा बढ़ गया जब एक तरफ से पाकिस्तान और एक तरफ से चीन भारत की सीमा में घुसने की कोशिश कर रहा हो, 
पर बिडम्बना देखो जहां आजकाल एक निम्न दर्जे के गाने को लाखों व्यूवर मिल जाते है वही इस गाने को इतने काम व्यूवर मिले है की कई बार बुरा लगता है की हमारा समाज अच्छे गानो के प्रति इतना बेरूख क्यों है, कारगिल दिवस के दिन जब मै यूट्यूब पर देश भक्ति पर गाये उत्तराखण्डी गीत सर्च कर रहा था तभी मुझे नेगी जी का यह गाना मिला मै रोने लगा , कितने भावपुर्ण शब्दों को रचा है नेगी जी ने, आप भी सुनिए इस गीत को और शेयर जरूर कीजिये यहाँ गाना नयी पीढ़ी तक पहुंचना जरुरी है,

कारगिल लैडे मा छौ माजी
पलटनों आदेश च
तू एखुली नि छै माजी
त्वे दगड़ा सैरु देश च

Thursday 10 August 2017

क्या बता सकते है ये कविता किसी प्रसिद्ध गढ़वाली गीत का अनुवाद है




रूप रंग तुम्हारे इस यौवन में, 
उम्र के इस सावन में 
मेरे भी इस कोमल से मन में
प्यास लगा दी है आस जगा दी है

यू मत मुस्कराओ दांतों पर दाग लग जायेगा
अपने होंटो को बंद कर लो 
फूल समझकर भँवरा घुस जायेगा
तुम्हारे यौवन को देखकर बुरांस बेचारा
हैरान है परेसान है

किस जहाँ से लेकर आये होे ये कोयल जैसा गला
ऐसी बतुनी आँखे कहाँ से पायी है तुमने भला
तुमारी झपकती पलकों के इशारे
मन में दबी बातों की परते खोल रही है
ये आँखे कुछ तो बोल रही है।

ख़ुदा की भी नजर है तुम्हारे चेहरे पर
ये चेहरा हमारे दिलों में भी बसा है
तुम्हे अपना बनाने के लिए चकोर भी लगा है
तुझे देखकर हयो राम
ये ढलते दिन का घाम 
ढल सा गया है। ओझल सा हो गया है

हर किसे से कोई यूँ प्यार नहीं करता 
बिना आग के कहीं धुआ नहीं उठता
तुमारे इस दिल में किसकी तस्वीर है
मै जान चूका हूँ मै पहचान चूका हूँ

सत्य घटना - सोणी ताई की प्रसव पीड़ा - भाग दो by Devesh Rawat


पिछले भाग में मैने बताया था कि सोणी ताई को प्रसव पीड़ा ज्यादा होने के कारण वह बे-होश हो गई थी
अब आगे..............  
सभी लोग गौशाला की और भागते हुए जाते है गौशाला गाँव से थोड़ा बाहर थी। वहाँ पहुंचने में कुछ वक्त लग गया इतने में कुछ औरते जोर से आवाजे देने लग गई। झबरू ताऊ और अन्य लोग गौशाला में पहुंचे और स्थिति का जायजा लिया। तब तक शाम के 7:32 बज गये थे। हल्की हल्की बर्फ भी गिरने लगे गई थी। वैसे समय देखने के लिए घड़ी गाँव में दीना दिदी के पास ही हुआ करती थी। तो सारे गाँव को समय वही बताती थी । और कुछ लोग सूर्य की रोशनी और कुछ रात को चाँद देख के समय का मोटा- मोटा आंकलन कर देते थे। दीना दीदी को इस लिए घड़ी के साथ बुलाया था ताकि वह बच्चा पैदा होते ही समय बता सके और बच्चे की कुंडली ठीक से बन सके। कही बार घड़ी का सेल खत्म हो जाता था तो दो लोगों को गॉँव वालो ने अपने खर्चे पर दुगड्डा भेजते थे सेल लाने के लिए। वैसे इस क्षेत्र में गाड़ी की सुविधा नही थी तो दुगड्डा से पैदल 70 KM आना जाना पड़ता था। दो दिन में गाँव तक पहुँच ही जाते थे। इन लोगों को ढाँकर बोलते है।
नमक,भेली,तेल और अन्य रोज की जरूरत के सभी सामन 70 km का सफर तय कर के दुगड्डा से आता था।
ताऊ जी ने पदान जी को बोला काका आगे क्या करना है। ताऊ जी बड़ी चिंता में थी। आंखों में आँसू भरे हुए थे पर रोना नही आ रहा था। बेचैनी में अ-सुद् सी हालत थी। अपने मांथे पर फ़्टगी मार रहे थे कि कैसी किसमत फूटी मेरी। इस कड़ाके सर्दी की रात में ताऊ जी पसीने से सरावोर थे । आज गाँव में किसी के घर का चूल्हा नही जला था। सारा गाँव परेशान था।
इतने में दाई ने छन्नि के अंदर से भरे हुए कंठ से आवाज लगाई। झबरू जैसे भी कर पर इस छोरी को हॉस्पिटल पहुंचा ले जा। सब कुछ कर पर इस छोरी के प्राण बचा ले। पर कोई करे भी तो क्या करे । इलाके में कोई हॉस्पिटल नही था। बोलना आसान है पर उस से भी मुशकिल है ये सोचना कि किसी मरीज को प्राथमिक उपचार मिल सके।
इतने में मंगली दादी आई अपनी लांठी को टेकती हुई आयी। दादी के सफेद बाल झुकी हुई कमर। कमर पर सफेद सापा जो न जाने कब से धोया नही था। और कानों में आठ-आठ मुर्खिल, पैरों में पैडा,नाक में बुलाक, दादी ने जीवन भर चप्पल नही पहनी। दादी ने अपनी कमर पर बंधे कपड़े (पठुक) से एक सिक्का और कुछ चाँवल निकाले सिक्का एक आना का था। जो उस दौर में बहुत ज्यादा था। पर मरता क्या नही करता। दादी ने ताऊ को बोला बेटा मानेगा तो मै तेरी माँ के समान हूँ और आज पुकार अपनी कुलदेवी को, और बोल अगर आज मेरी सोणी को कुछ हुआ तो या तू नही, या मै नही। तेरी पूजा कभी नही करूंगा अगर तूने मुझे निराश किया तो। अब करें तो क्या करें । ताऊ जी ने वही किया जो दादी ने बोला। जीवन संगनी का सवाल जो था। ताऊ जी ने सिक्का और चाँवल अपने सिर के ऊपर घुमाए (परोखे) फिर दाई को बोला कि सोणी के सिर से पैसा (उच्यणु) घुमा दे। सारा कार्यक्रम विधिवत चल रहा था इतने में भुन्द्रा काकी को देवता आ गया, वह नाचने लगी चिल्लाने लगी, काकी नेअपने बाल खोल दिये, गाँव वालों ने भीड़ लगा दी लोग हाथ जोड़े खड़े हो गए । भगतू भाई, पीथा काकी, धुपणो के लिए करछी (डांडयों) खोज रहे थे । कोई घी, कोई खुणजु सभी में अफरा ताफरी मची हुयी थी। इतने में धूपण भी आ गया। गोंत अर गंगाजल का लोटा भी गया।
सभी ब्यवस्था होते ही दो चार अन्य देवी-देवता भी प्रकट को गए। मंगतू काका तो छूरी पकड़ के नाचते है। जब छन्नि (गौशाला) में छूरा नही मिला तो बैल का कीला ही उखाड़ दिया।
 
मंगतू काका ताऊ जी के सिर पर हाथ रख के बोले !! तेरी माँ ने मेरे लिये भेंट निकाला था कि बकरा मारूँगी, मारा नही । मै तेरा रास्ता रोक रहा हूँ । मै भैरव हूँ!! ताऊ जी बोले हे परमेश्वर जी !! जब माँ ही न रही तो मुझे क्या पता कि क्या माँगा था। ताऊ जी दोनों हाथों से धुपणु घुमाने लगे। इतनी देर में सुमा भाभी (बौ) ने किटगताल (चिल्लाना) मारी। उनकी आवाज ने सब के कानों को सुन्न कर दिया। आवाज इतनी बड़ी थी कि सोणी ताई बेहोशी से बाहर आ गई । तीन गाँव दूर तक आवाज गई थी। और अगल-बगल के गाँव के लोग भी लालटेन और रांका जला के आवाजें देने लग गए।
यही भाईचारा है पहाड़ों में कि तू दुखी तो सब दुखी मै सुखी तो जग सुखी। कुछ बगल के गाँव से पांच सात उजाले हमारे गाँव की ओर बढ़ने लगे गए थे । जोर-जोर से आवाजें दे रहे थे वह लोग।

सोणी ताई ने अब कुछ हरकत की अपनी आंखों से ही कहा हो जैसे मुझे न बचावो मुझे मरने दो। अब मेरी बस की बात नही। नही बचूंगी मै पर लोगों ने हिम्मत बंधाई अब तो हाल ये है कि ताऊ जी के भी आंसू गिरने लग गए थे। होंठ कांपने लग गए थे उनके। बोल कुछ नही पाए पर दर्द जितना ताई को प्रसब् का उतना ही ताऊ को बिरह का।
लोगों से ताई को जोर लगाने को बोला कुछ कोशिश करने को बोला पर कोई फायदा नही हुआ ताई जी जीने की उम्मीद हार चुकी थी।
इतने में पदान जी ने बोला पिंनस को सजाओ अर ब्वारी को अंदर गाँव के हॉस्पिटल में ले जाओ । वहाँ कुछ हो सकता है। लोगो ने तैयारी शुरू कर दी। इतने में बगल के कुछ गाँव के लोग भी मौके का जायजा लेने आ गये कि माजरा क्या है। राम सलाम दुअा के साथ कहानी समझ में आई । उनमें से किसी ने बताया कि अंदर गाँव का हॉस्पिटल अभी सही से नही बना डॉ नही है वहां कोई भी कर्मचारी अभी नही आया। अब सारी रही हुई उम्मीद भी खत्म हो गई । पर उन लोगों ने ताई को रिखणीखाल ले जाने की बात कही। वह लोग बोले!! रिखणीखाल में कम्पाउडर है कुछ तो जुगाड़ हो जाएगा। रात्रि के 11 बज गए थे अभी तक घुटने की ऊंचाई का बर्फ गिर चूका है चारों ओर सन्नाटा सर्दी की ठंडी हवायें। औऱ इतना बड़ा बखेड़ा कुछ नोजवानों ने ताई को उठा के पिंनस में रखा रसियों से बांधा अच्छी तरह से कपड़ों से दन (भेड के ऊन से बना बिछौना दन होता है) ढक दिया। औऱ 4 नोजवान कंधा लगा कर कुछ आगे से उजाला कुछ पीछे से रांका (मसाल) जला कर और पूरे गाँव की सान मिट्टी तेल का गैस मेरे सिर पर सब से आगे। वैसे हम लोग इस गैस को किसी खास मौके पर ही बाहर निकालते है पर आज तो समूचे गाँव पर ही संकट था। 
द्वारी,शेरागाड, डबराड, पानीसैण शिमला सैण होते हुए करीब रात्रि के 3 बजे हम लोग ताई को बिना सांस लिए रिखणीखाल में पंहुचा दिए ताई भी हिम्मत हार चुकी थी पर सांसे अभी कहीं अपनी मर्जी से अटकी हुई थी। 
जैसे ही हम रिखणीखाल पहुंचे अगत बगल गाँव वालों (बल्ली, ब्यौला) को पता चल गया कि कोई मरीज आ रहा है बूढ़े लोगों की खांसने की आवाजें सुनाई दे रही थी चिमनी की रौशनी भी दूर दिख रही थी।
बस कुछ ही छण में हम 25,30 लोग ताई जी को लेकर रिखणीखाल हॉस्पिटल में पहुंच गए पर किस्मत आज हम लोगों के साथ न था यहां तो ताला लगा हुआ था। कोई नही आस पास हम लोगों का दिल बैठ गया 5 घण्टे के सफर के बाद भी खुसी का मुंह नही देखा अब तक ताई मरी सी हालत में हो चुकी थी हम सर्दी में भी ताई के चेहरे पर तमलेट और छाकल से पानी निकाल के पानी के छीटे मार रहे थे।नाले गदेरे पार करते करते उबड़ खाबड़ रास्ते कहीं झाड़ियां कहीं चढ़ाई का रास्ता तो कहीं खड़ी ढलान नजाने आज देवी हम को कौन सी शक्ति दे रही थी कि हम जिन रास्तों पर दिन में नही चल पाते है रात के अंधेरे में बिना किसी रुकावट के चल रहे है। हमारे उजाले अब पूरी तरह बुझ चुके थे हम अब अंधेरे में थे पर उजाले की उम्मीद नही छोड़ी थी।
हम परिस्थिति के आगे लाचार थे असहाय थे हम उस दुश्मन से लड रहे थे जो हमारे साथ थी उठता बैठता है हमारा ही दोस्त है हमारा ही साथी है वो था बदहाली छेत्र की अनदेखी पहाड़ों की, शोषण समाज का। पर करे तो क्या करे सब के पास सवाल था पर जवाब किसी के पास नही था। सभी इतने लाचार थे कि किसी से सवाल भी नही पूछ सकते अपने आपस में कि अब क्या।
खैर होनी को कौन टाल सकता है भगवान जैसे हम सब की परीक्षा ले रहा हो सहन्ता की सीमा मांप रहा हो।
पर तभी किसी ने छिल्लुड (क्याडा) के उजाले के साथ आवाज दी हम को हम खुस हुए कि डॉ आगया पर वो कोई स्थानीय निवासी था करीब 70 साल का जो जायजा लेने आये थे कि आखिर इतनी रात को हॉस्पिटल में कौन आये है दिक्कत क्या है। राम दुवा हुई पूरी ब्यथा उन को बताई तो उन्हों ने बोला डॉ तो कल ही साम को अपने घर ग्राम भरपूर गया है उस की 6 साल की बेटी को घर के छ्ज्जा से बाघ उठा ले गया बेचारी सुबह मिली तो बाघ ने उसे आधा खा दिया था।
बेचारी मर गई पर आप ऐसा करो आज हमारे गाँव में शादी है वहाँ हमारे एक रिश्तेदार डॉ आये हैदिल्ली से । बस हम लोगों की खुशी का ठिकाना न रहा। जैसे कि वर्षों के प्यासे को पानी मिल गया हो। वो बूढ़े बाबा बोले कि इन को हमारे घर ले चलो आनन-फानन में ताई को हम ने उठा के उन के घर बएला तल्ला गाँव पहुंचा दिया वहां भीड़ इकठ्ठा हो गई। हम लोगों के बिखरे हुए बाल फटे पुराने कोड़ें चप्पलों पर धागे बंधे हुए पेंट पर रंगबिरंगी टल्ली (थेकले) रिखणीखाल के लोग हम से सभ्य दिख रहे थे हम थोड़ा देहात के थे वो लोग सेंदार के या हो सकता है आज उन के गाँव में शादी थी तो उसी की चकाचौंद रही होगी पर बहरहाल डॉ साहब को नींद में से जगा के लाये ग्रामीण पूरा माजरा समझाया फिर डॉ साहब बोले भाई बात तो सही है पर हम जानवरों के डॉ है इंसानों के नही। हम लोग फिर जहां खड़े थे वहीं नजर आरहे थे निराशा हताशा और लाचार सब के गले सूखे थे आंखे सूजी थी ठंड से ठिठुर रहे थे पर करते भी क्या किस्मत वहाँ लाई थी जहां सब कुछ होते हुए भी कुछ न था। फिर डॉ बोला कि कोई बात नही वैसे मेरी बीबी नर्स है वह कुछ करेगी हम लोग खुश तो हुए पर पूरे नही क्यों कि इतने भी गंवार नही थे हम कि नर्स और डॉ में फर्क न जान सकें। डॉ साबह ने किसी अपनी बीबी को लाने भेजा। वह शहर के लोग थे 30 मिनट तो लगेगा ही नींद से जगने का। पर वो भली औरत थी कहानी को आधा सुने ही बालों का जूड़ा बनाते हुई दौड आई मामले की गहराई को समझा और सारी ब्यवस्था करने की जिम्मेदारी उस परिवार को दे दी जिन के घर में शादी हो रही थी। और अब सोणी ताई की डिलीवरी।
जो सामान हम ने अपने घर में जुटाया था वही इन भले लोगों ने यहां भी जुटा दिया था। ताई को पुनः किसी गौशाला में ले जाया गया। हम लोग उन की चौक में बैठ गए किसी भले भाई ने हम को तांबें के बड़े-बड़े गिलासों में गर्म चाय पकड़ा दी वह भाई वही था जिस की आज शादी की न्यूतेर थी। चाय गले से नही उतर रही थी। रिखणीखाल खाल की वो ठंडी वीरान हवायें हड्डी को भी छेद देती है। ताऊ जी और पदान दादा जी छन्नि में ही थे। किसी ने उन के लिए चाय वही भेज दी उन की छन्नि घर से चार कदम थी आवाजें यहां हम को साफ सुनाई दे रही थी। हम लोगों ने एक दूजे का मुहँ ताकते हुए चाय की चुसकियाँ मारनी शुुरु की अब सुबह के 5 बज गए थे। बर्फ भी गिरनी बंद हो गई थी सर्दी की रातें थी वरना गर्मी के दिनों में ग्रामीणों का आना जाना शुरु हो जाता । चिडियों का गुंजन सुनाई दे रहा था।
अचानक हम को किसी बच्चे के रोने की आवाजें सुनाई देने लगी। हम ने बड़ी उत्सुकता से दूल्हे को समय पूछा वो भाई बोला छः बज के तीन मिनट और अब चार तारिख हो गई थी, बुधवार हम लोगों से राहत की सांस ली। चलौ हमारी मेहनत कामयाब हुई। छन्नि से किसी दीदी ने हम को ग्राउंड जीरो की रिपोर्ट दी वो बोली कि जुडवा बच्चे हुए है । और दोनों लड़के है हमारा खुशी का ठिकाना न रहा। जैसे कि हमने आज सिकन्दर बन के जग जीत लिया।.......
 
हम गौशाला में जाते है तो मंजर देख के सन्न रह जाते है खुशी के आँसू पोछे,या गम के सम्भालें,जो मन्जर था वह हमारे पैरों के नीचे की जमीन को खिसका ले गया। हम जैसे खड़े थे वैसे ही रह गए......

अब आगे कल.......
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लेखन -:देवेश आदमी (प्रवासी)
पट्टी पैनो रिखणीखाल
(देवभूमि उत्तराखंड)
सम्पर्क -:8090233797

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