घटना तिथि-:30/07/1983
शनिवार रात्रि 7 बजे
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यह एक सत्य घटना पर आधारित पात्रों के नाम वही है जो थे पर घटना के घटित गाँव का नाम बदला हुआ है। बाकी घटना की तिथि बार दिन समय और ग्रामीण परिवेश यथार्त तथाकथित है।
आम दिनों की तरह आज का दिन भी मेरा थकावट भरा था !! मै शिवू भाई, प्रभु काका, जमना दास, ताऊ, छैला भाभी, हरी भाई, ध्याडी करके बगल ढुङ्गदार गाँव से लौट ही रहा थे !! कि जोर-जोर की आवाजें सुनाई देने लगी। कुछ औरतों की कुछ पुरूषों की, वैसे हमारे गाँव में ये कोई नयी बात नही है!! झगड़े होते ही रहते है ! पर आज किसी औरत की आवाज में दर्द सुनाई दे रहा था। कुछ अजीब सा लगा। पर लपक के मैने भी कदम तेज कर दिए। वैसे मेरे गाँव का रास्ता पत्थरों को बिछा कर बनाया हुआ है चौड़ाई करीब तीन फिट है कुछ सीडीनुमा तो कुछ समतल है जैसे जमीन वैसा रास्ता।
रास्ते के दोनों तरफ लोगों के खेत है किसी खेत में झंगोरा है किसी में क्वाद (मंडवा) गन्दरू, कोणि, मुंगरी, मूली,राई, लगभग सब प्रकार की खेती है । उखड़ी (उपराड) की खेती है पूरी सोणी (रोपाई) की कुछ खेती है पर बहुत दूर है । लोगों की ठंगरी में कखड़ी, गुदड़ी, चचिंडा, लगे हुए थे भादौ के महीनों में अक्सर हमारे गाँव में सब्जी की बहार आ जाती थी। बाकी दिनों में सुकसा ही खाने पड़ते थे । वैसे कल तक तो झेड (लगातार बारिश) पड़ी रही थी आठ दिन तक बारिश बंद नही हुई थी। पर कल से मौसम ठीक था। हम ध्याडी वालों के लिए अच्छा मौसम था।
सब से नीचे गाँव के दो परिवार पण्डितों के थे जो कि मलाण गाँव से किसी जमाने में हमारे गाँव के पदान जी लाये थे। वही हम लोगों के पित्र बामण (पण्डित) थे। फिर कुछ खेत छोड़ने के बाद तीन खड़ीक के पेड़ है। इन पेड़ों के चक्कर में कही बार मुकदमा भी हो चुका है पर पेड़ वैसे ही है जैसे थे। मुकदमे चल ही रहे थे।
गाँव में कुल सतावन परिवार है । जिनमें से चार परिवार हरिजन (औजी) दो पण्डित एक परिवार जोगी समाज का है । बाकी पचास परिवार ठाकुर के थे। ठाकुर में कुकल्याल रावत और रिखोला नेगी थे। पर दबदबा रावतों का ही था क्यों कि वह चालीस परिवार थे इस गाँव के मूलनिवासी रावत ही थे बाकि बहार से आकर बसे थे (रावतों ने ही गांव बसाया)
पदान और सरपंच भी रावत ही थे। उनको अपने ज्यादा होने का घमंड।
मैं अपने बारे में बताऊं तो मेरा नाम चमन लाल है!! बाकी बताने की जरूरत नही कि मै किस जाति का हूँ। पीछे लाल लगने से आप समझ गए होंगे!!
हमारे गाँव में दो पंदेरा थे । एक गाँव के नीचे जो कि गर्मियों में सूख जाता था । और एक गाँव से ऊपर जो कि हर मौसम में पानी देता था। पर हम लोग एक ही पंदेरा का पानी पीते थे । जिसमें गर्मी में पानी नही आता था। तब हम गर्मीयों में पानी गदेरे से लाकर पीते थे। जहाँ पानी तो भरपूर था पर नजाने कितने गाँवों का मैला आता होगा। गर्मी में लोग क्याडा (भीमल की लकड़ी जिस की चाल से रस्सी बनती है और डंठल से आग जलाने का काम डालते है ) जिस में कीड़े पड़े हुए रहते थे और दुर्गंद भी बहुत आती थी। पर करें तो क्या करें हम औजी है छुआ छूत अपने चरम पर थी। भले आज़ादी मिल गयी थी पर अभी भी हमारे साथ वैसा ही सलूक होता था। जैसे आजादी से पहले।
हम लोगों का घर गाँव से दूर था !! पर रास्ता गाँव के बीच से होकर जाता था। कही बार हमें ठाकुर लोगों को अनचाहे बिनचाहे रास्ता देना पड़ता था । चाहे कुछ भी हो पर किसी को छू नही सकते है वरना हाल वो होगा जो मेरे पिताजी का हुआ था। मेरे बुबा (पिताजी) ने गलती से एक दिन किसी छः साल की ठाकुरों की एक लड़की को पानी पिला दिया था वो लड़की शाम को खेल के आ रही थी तो रास्ते में हमारे घर पर उस ने पानी मांग लिया बुबा जी के मना करने के बाद भी वह नहीं मानी तो हमारे चौक में पानी का गगरा (कलश) रखा हुआ था उस ने उसमें से पानी पी लिया। किसी निर्दयी ऊंची नाक वाले आदमी ने देख लिया उस दिन से हमारा हुक्का पानी बंद हो गया। और बुबा जी (पिताजी) को मार अलग पड़ी सो अलग। उसी मार से बुबा जी की जांघ की हड्डी टूट गई थी चार साल वह वैसे ही झेलते रहे आखिर बल कैंसर हो गया था उस के साथ वह पिछले ह्युन्द(सर्दी) में सारे दुःख दर्द को साथ लेकर परलोक सिधार गए।
उस दौर में वहां हॉस्पिटल की सोच भी नहीं सकते थे कि उन्हें वहां दिखाते पर मेरे मामा उन को एक बार चंडीगढ़ ले गए थे कुछ इलाज तो हुआ। इलाज के पैसे के लिए मामा जी चंडीगढ़ में किसी कोठी में काम करने लगे। तब परिवार में मै और मेरी माँ थी । पर छोड़ो पुरानी बात ये तो एक ब्यथा है सब गाँव में अधितर परिवारों की यही ब्यथा थी।
तब हमारे गाँव में स्कूल तो नही था पर बुलेखा गांव में स्कूल था । जो दर्जा पांच तक था। बाकी की पढ़ाई के लिए बमण गाँव जाना पड़ता था । और अगर किसी ने उससे आगे की पढाई करनी है तो रिखणीखाल जाना पड़ता था। जब मै तीसरी कक्षा में पढ़ता था तो दलिया खाने और मीठा भात खाने के लिए मेरी भी एक ऊँची जाती के लड़के से लड़ाई हुई थी । मैने किसी के बोतल से पानी पी लिया था वो गुरु जी का बेटा था पर अब तीस (प्यास) लग गई थी तो मै करता भी तो क्या ? दलिया खाने के लिए हरिजनों को अलग बिठाया जाता था। पानी भी हमें अपने लिए घर से लाना पड़ता था। स्कूल का पानी नहीं पी सकते थे। मैंने पानी क्या पीया था उसकी बोतल से बस उसके बाद तो हम स्कूल में कुछ साल पहले चुना (सफेदी) करने गए थे।
जैसे-जैसे मैने गाँव में प्रवेश किया लडाई की आवाजें बहुत तेज आने लगी। मै भागा-भागा गया तो सामने का नजारा देख के दंग रह गया मालगुजार बूबा जी मेरी चैता काकी के बाल खींच कर उन्हें डंडे से मार रहे थे। भरतू काका का पटोल छण भंयरा मकान था (पठाल वाला ग्राउंड फ्लोर) इस घटना के मूकदर्शक तो बहुत थे पर कोई बिरोध करने वाला नही था किसी के पास इतनी हिम्मत नही थी कि कुछ बोल दे। सब दर्शक बने हुए है।
चैता काकी के तीन बेटियां (जो उम्र में बहुत छोटी थी)।अपनी मां से लिपट हुए लिपट कर रो रही थी। किसी ने भी सुलार नही पहनी तो किसी ने झगुला नही पहना है। पर मालगुजार बूबा जी उन बच्चों को भी लात मार के इधर उधर फेंक रहे थे। काकी की गत्तीदार ख़दर की धोती के दोनों पल्ले खुल गए काकी का ब्लाउज भी फट गया था। काकी चिल्ला रही थी पर किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। मालगुजार काका का गुस्सा कहें या दादागिरी लोगों ने पहले भी देखा था पर आज किसी औरत के साथ होता इतना जघन्य अपराध सब की रूह कंपकपा रही थी।
मैने मालगुजार बूबा के आगे घुटने के बल जमीन में बैठकर हाथ जोड़े और काकी को छुड़वाने की कोशिश की। पर माल गुजार ने मुझे भी लात मार दी चल हट डुमडे की औलाद कहकर मुझे चुप रहने को कहा। मै जमीन पर गिर पड़ा। उन्होंने अभी तक काकी के बाल नही छोड़े थे। मैने दोबारा कोशिश की और फिर नाकाम रहा अपनी काकी को उनके चुंगल से छुड़ाने में। मै मिन्नत कर कह रहा था कि काकी को छोड़ दें चाहे मुझे मार लें। वैसे मै पहली बार ही गाँव में लात नही खा रहा था मुझे आदत सी हो गयी थी गाँव वालों के लात खाने की । पर आज कुछ गजब ही हो गया था। बूबा जी ने जैसे ही काकी को लात मार के कोने में फेंका काकी की धोती खुल गई और गरीबी में जहां सात बच्चों के लिए दो जून की रोटी नही जुटा पाते वहाँ पेटिकोट कहाँ से नसीब होता। पूरे बदन पर दो ही कपडे तो थे एक खुल गया दूजा फट गया। लोग हँसी उड़ा रहे है । काकी अपनी लाज बटोर रही थी। नाकाम कोशिश मैने भी की पर तब तक तो बिना बाजार भाव के इज्जत नीलाम हो चुकी थी। जैसे-तैसे हम ने स्थिति को नियंत्रण में लिया।
और मैने काकी को धोती लपेटी काकी को दूर ले जाने की कोशीश की पर बूबा जी ने मुझे भी पीछे से लात मारी और जमीदोज कर दिया फिर काकी की उलझी हुई धोती खोली ओर छिटगा के बदन से दूर चौक से नीचे मुंगरेटा (मक्के का खेत) में फेंक दी। काकी अब निर्वस्त्र बैठी थी तमाशबीनों के जैसे दिल की हो गई आज उन के लिए मदारी का खेल चल रहा था। तब तक काकी के बच्चों के रो-रो के बुरा हाल हो चुका था। बड़ा बेटा रोशन भाग के काका जी को बुलाने भागा जो कि नीचे से आते हुए दिख रहे थे। वैसे काका जी का काम बाँस की टोकरियाँ,सुप्पु (फटगेणु) बनाने का काम था। और बाकी काका जी शादी ब्याह के समय ढोल दमाऊ बजाने का काम थे।
वैसे किसी जमाने में मेरे बुबा (पापा) भी यही काम करते थे कास्तकारी और शिल्पकारी का वो मण, ठेकी, नाली,प्रर्या बनाते थे बदले में लोग हम को डड्वार (मजदूरी के बदले अनाज देना) देते थे और आज भी वही है पर कोई इज्जत दे दे तो समझौ चाँद मिल गया।..........
इतने में काका जी भी पहुंच गए थे काका जी ने फ़्तगी और कुर्ता पहना हुआ था कांधे पर पीछे फ़्तगी में लांठी टँगी थी सुलार (पजामा) का एक बाजू नीचे, एक बाजू ऊपर हो रखा है । हांपते-हांपते काका चौक में नग्न पड़ी काकी पर लिपट के अपनी फ़्तगी से काकी को ढक दिया। काकी की धोती लाये खेत से और काकी के सिर पर फेंक के मालगुजार बूबा के पांव पर अपनी टोपी रख दी । काका जी छोड़ दो ब्वारी को क्या कोई गलती हुई है तो मुझे मार लो पर उसे छोड़ दो क्या गलती हुई है उससे बोलो काका जी,,,? मेरे काका जी रो रहे थे चिल्ला रहे थे उन की उम्र भी करीब 35 साल थी पर बदहाली और दमें की बीमारी नें उन को इस कगार पर ला के खड़ा कर दिया कि वो 50 साल के लगते थे फिर अनपढ़ और बेरोजगारी ने परिवार का लाकर सीमा रेखा के पार पहुंचा दिया था।
मालगुजार बूबा ने काका जी को बोला !! तुझे मैने पहले ही बोला था कि ढोल जहां मै बोलूंगा वहीं ढोल बजेगा तो तूने मेरे दुशमन के घर में उसके बेटे की शादी में ढोल क्यों बजाया ?? तूने मेरा कहना नही माना तो अब भुगत उसकी सजा। तब पहाड़ों में औजी समाज को ढोल गाँव वाले देते है बजाने के लिए वो उससे ही वह अपनी जीविका चलाते थे। पर ढोल पर मालिकाना हक़ गाँव वालों का होता था। ढोल तांबे से बना हुआ एक बाद्य यंत्र होता है जिस पर बकरे की खाल लगाई जाती है पूजा मंत्रणा से ढोल बनता है बहुत ही खर्चीला काम है ये इस ढोल में 12 ताल होते है जो कि अलग अलग मौकों पर अलग अलग समय पर बजाए जाते है ढोल की सब से बड़ी बिद्या ढोल सागर है जिस किसी को इस बिद्या का पूर्ण ज्ञान हो गया समझो वो पूर्ण अनुरागी है। ढोल के साथ दमाऊ होता है जिस के बिना ढोल अधूरा है जैसे शक्ति के बिना शिव वैसे ही दमाऊ के बिना ढोल।
पर आज ये ढोल जान का दुश्मन बन गया था!!
इतने में मैने जैसे -तैसे काकी की धोती संभाली सभी बच्चों को चुप कराया और चुपके से काकी को घर की और जाने को कहा। पर काकी कह रही थी चमन तू अपने काका का ख्याल रख मुझे मत देख कोई बात नही मेरे को मारा पर तेरे काका जी कमजोर है उन को कल ही खून की उल्टी भी हुई थी बाबू तू काका का ख्याल कर छोड़ दे मुझे मै ठीक हूँ।
मै भी काकी की बात मान गया और भाग के फिर चौक में काका के पास गया मालगुजार बूबा जी मेरे काका को पीट रहे थे । काका सिवाय मार खाने के कुछ भी नही कर पा रहे थे। वो सिर्फ गरीबी लाचारी से बंधे हुए थे इतना मार खाने के बाद भी काका ने एक आंसू नही गिराया । मालगुजार जी ने काका को एक लात मारी और काका का कुर्ता मालगुजार जी के हाथ में और काका चौक किनारे बने दीवार पर जा गिरे और काका जी का सिर पत्थरों पर जा लगा । दीवार नई थी पत्थर नुकीले थे और काका गिरते ही बेहोश हो गए खून जैसे कि फवारा बन गया।
मेरी आँखें फटी की फटी रह गई। मेरा मुहँ खुला का खुला रह गया जीवन में दुखः बहुत देखा पर खून आज पहली बार देखा था। मार खाने का तजुर्बा बचपन्न से था पर खून नही देखा था। मौके की नजाकत को भांपते हुए तमाशबीन लोग उल्टे पाँव चलने लगे गए मालगुजार जी भी अपनी मूंछों को ताव तो दे रहे थे पर डर से पीछे हट रहे थे । अब तक मेरे काका जी खून में सन गए थे । मै उन से लिपट गया अपने गले से गमछा निकाला और काका के सिर से निकल रहे खून को दबाने लग गया। सभी लोग भाग चुके थे और मै अकेला काका को संभाल रहा था। काकी को आवाज लगाई पर घर दूर होने की वजह से किसी ने नही सुनी........
अब आगे जारी है
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लेखन-:देवेश आदमी (प्रवासी)
पट्टी पैनो रिखणीखाल
(देवभूमि उत्तराखंड)