Wednesday 9 August 2017

सत्य घटना - ताई जी की प्रसव पीड़ा by Devesh Rawat



बात मंगलबार 1970 की है मौसम सर्दी का, इलाके में घना कोहरा लगा हुआ था। गाँव घाटी में होने के कारण रात जल्दी हो जाती थी ओंस शाम 4 बजे से ही पड़नी शुरु हो जाती थी। चारो और सर्दी की वजह से सन्नाटा। पहाड़ों की जिन्दगीं की पटकथा वहां का मौसम लिखता है वहाँ के वाशिंदे नहीं। सर्दी, गरमी, और बरसात, कोई भी मौसम हो ।
 
1973 का वो मंगलबार का दिन था। सर्दी की ठिठुरती शाम और अचानक सोणी ताई को प्रसब् पीड़ा का होना। झबरू ताऊ ध्याडी (मजदूरी) कर के घर भी नही आये थे ताई जी को प्रसब् की असहनीय पीड़ा हो रही थी। वह चीखने लगी तो अगल- बगल वालो के घरों ने आवाजे सुनी। बुजर्ग औरतों को माजरे को समझने में देर नहीं लगी। सोणी ताई को लोगों ने घर के अंदर ही चारपाई पर लेटा दिया। सुमा काकी गरम पानी करने लगी । पीथा दादी सरसों के तेल से सोणी ताई की मालिस करने लगी। पुष्पा भाभी गोसाला से गाय बछियों को किसी और की छन्नि (गोशाला) में बांधने लगी। क्यों कि यहाँ सोणी ताई जी ने अपने बच्चे को जन्म देना था। (पहाड़ों में पहले प्रसब् के लिए गौशाला का प्रयोग किया जाता है)। छीला दीदी ने एक घरेलू चिमनी का जुगाड़ किया। शीशी (पवा) के ढकन पर छेद कर के चिमनी बनाई । और मिट्टी तेल डाल कर धोती के कोने को फाड़ के बत्ती बना कर छन्नि को प्रकाशमय कर दिया। सभी पड़ोसी अपनी तरफ से कोशिश कर रहे थे। कोई पुरानी धोती को फाड़ के खंडेला (बिछौना) बना रहा था। तो कोई पत्ती (ब्लेड) का जुगाड़ और कोई मुछेका (लकड़ी की बल्ली) जला रहा था। गौशाला में तो मनशीरु दादा जी डिगचा मुक्जया (धोना) रहे थे। न जाने कितने साल बाद इस डिगचे ने फिर से दुनियाँ देखी । पर आज उस के लिए भी संग्रांद थी। उधर सोणी ताई की बढ़ती जा रही थी। अब गाँव की दाई (पहाड़ी नर्स) भी आ गई थी । सब ने सोणी ताई को रसोड़ा (किचन) से छन्नि में शिफ्ट किया। छन्नि उन की अपनी भी नही है छन्नि ग्राम पंचायत की थी। क्यों कि छन्नि जिन का थी। वह इस गाँव में अकेले पण्डित थे। कुछ साल पहले वह लोग बड़े आदमी बन गए थे । क्योंकि वह लुधियाना में किसी A-one साइकिल कम्पनी में दोनों भाई नोकरीं करते थे। माँ उनकी बहुत पहले मर चुकी थी। एक बहिन थी। उस की शादी हो गई और कुछ साल पहले पिताजी भी स्वर्ग सिधार गए । दोनों भाई वहीं बस गए जैसे पढने वाले बहार बसने की सोच रहे है । पहले तो आते जाते थे घर, पर जब से उन के पिताजी गुजरे उसके बाद एक बार गाँव पूजा (पुजै) में आये थे मेंजैसे आप एलपीजी जाते जो। अब सात साल हो गए है घर नही आये। उनकी खेती गाँव के कुछ लोग करते थे। पर उनकी छन्नि लोगों के काम आ गई । घर को उनके गाँव वालों ने पंचायत भवन बना दिया था । पाँचवी क्लास तक की पढ़ाई भी उन्हीं के घर में होती है। वैसे हर साल हम लोग अपने घर की मरम्मत करें न करें उनके घर और छन्नि दोनों की मरम्मत और सफेदी जरूर करते थे। वह गाँव का अकेला घर था जिस पर चूना लगता था। रात को हम सब यहीं पर पढ़ते थे सभी पढ़ने वाले बच्चे रात नौ बजे तक यहीं रहते थे। नौ बजे के बाद खाना खाने अपने-अपने घर जाते थे। किसी को गाँव वाले को नौ बजे से पहले अपने बच्चों को खाना खिलाने की इजाजत नही थी। न धै (आवाज मारना) लगाने की। वरना दीना दीदी उसका विरोध करती थी। दीना दीदी हमारी अध्यपिका (बहिन जी) थी। ..पुरे गाँव में दीदी अकेली है जो दसवीं पास है बाकी पांच और आठ तक ही पढ़े लिखे है । पूरी पढाई न करने का मुख्य कारण स्कूल का पचीस किलोमीटर दूर होना । दीना दीदी का परिवार पहले लैंसडाउन रहता था चाचा जी आर्मी में थे पर 1965 की लड़ाई में खो गए थे।दीदी अपने माँ पापा के साथ कोटद्वार में रहती थी । पापा के मौत के बाद वह लोग गाँव में रहने लगे थे। दीदी गाँव के बच्चों को पढ़ाती थी।
इससे गाँव के बच्चो की जिंदगी सुधर रही थी। और बाल मंगलदल की तरफ से दीदी को महीने के पचपन रूपये मिल जाते थे।
 
इसी बीच झबरू ताऊ भी अपने सापा (गमछा) से हाथ मुहँ पोंछते हुए फ़्तगी मफलर पहने हुए चप्पलों पर सेलू के धागे बंधे थे । ताऊ जी का फौजी सुलार आज भी वैसे था है जैसे हवलदार पप्पू काका ने उन्हें एक साल पहले दिया था। ताऊ जी ने शायद दादा जी के श्राद के बाद दाढ़ी भी नही बनाई थी । कम से कम दो महीने तो ब्यतित हो गए होंगे। वैसे ताऊ जी एक पाँव से थोड़ा कमजोर थे। सुना था जब ताऊ जी उम्र में लगभग सालभर के थे तो गाँव में कोई महामारी फैली थी ताऊ जी महामारी को मात तो दे गए पर पैर से मार खा गए।

ताऊ घर के चौक में पांव रखा ही था। लोगों की भीड़ देखी तो ताऊ जी के हाथ पांव फूल गए । माजरा समझने में देर नही लगी। मालगुजार दादा ने और हवलदार ताऊ तथा पदान दादा ने ताऊ को समझाया तो ताऊ बाहरी मन से शांत हो गये पर फिर भी पहली औलाद जो घर में आने वाली थी। तो ताऊ जी की डर भी रहे थे। सभी पल भर में ताऊ जी के साथ हँसी मजाक करने लग गए। गढ़वाल में यही हँसी मजाक है जो हर दर्द दुःख सुख या आपदा में हम लोगों को आपस में जोड़ देता है!! तिरलोक चाचा बोले भाई गुड़ की भेली लाओ, या भूडे पकाओ पहली बार बाप बन रहा है, तो चिमनी ताई बोली!! पकोड़ी से नीचे काम नही चलेगा। गाँव में छ्कोल (सामूहिक भोजन) देना पड़ेगा। घर के चौक में अंगेठी जलाई हुई थी कोई हुक्का गुड़गुड़ा रहा है तो कोई बार-बार छन्नि में खबर लेने जा रहा है। घुत्ती भाई तो डी डी वन के पत्रकार की तरह ग्राउंड जीरो से पल-पल की खबर दे रहा था। दे भी क्यों न ? वह भी तो आज भाई बनेगा। उस के चाचा का महेमान रास्ते में जो है.....।
 
ताऊ जी की शादी हुए नौ साल हो गए थे। जब उनकी शादी हुई थी तब उनकी उम्र पंद्रह साल और ताई की उम्र बारह साल की थी। बल ताऊ जी की जब शादी हुई थी दादा जी ने दो दून मंडवा, दो दून झंगोरा, दहेज में दिया था। तब ये सब जोड़ने के लिए नाना जी को ताई की बुलाक गिरबी (बंधान) में रखकर बारातियों को खाने की ब्यवस्था करवाई थी। दादी का ही ग़ुलाबंद ताई (दुल्हन) को पहनाया गया था। वैसे कुछ अज्ञांता और कुछ खराब आर्थिक स्थिति की वजह से ताऊ जी के पहले तीन बच्चे पैदा होते ही मर गए थे।
समय बीतता जा रहा था । अब सब के माथे पर थोडा- थोडा चिंता दिखने लग गई थी। पर कोई किसी को कह नही रह था। उस की वजह ये थी कि पहाड़ों में कहते है जब डर लगे तो दूसरे को मत बोलो कि मुझे डर लग रह है। उसे हिम्मत से आगे का रास्ता तय करने दो। वरना दूसरा भी डर जायेगा । डरने का हक सब को है पर बोलना किसी को नही। आगे चलते रहो कुछ वक्त बाद हिम्मत आप को खुद खोजेगी। पदान दादा जी थोकदार जी को बुलाने संता दीदी को भेजा कि थोकदार जी को भट्या (बुला) लाओ। कुछ देर बाद पंखी ओढ़े मंकी टोपी और ब्राउन कोट चप्पल के साथ आर्मी वाले गर्म मौजे (जुराप) पहने थोकदार जी लांठी हाथ में लिए चौख में पहुंच गए। ताऊ जी ने मोड़ा सरकाया थोकदार जी बैठ गए । बुलाने की वजह जानी और सभी के बीच में सलाह मसवारा किया।
इतने में घुत्ती भाई ग्राउंड जीरो से रिपोर्ट ले कर आ गया। घुत्ती भाई ने बोला कि दादी चाचा जी को बुला रही है कि हमारी बस की बात नही है। चाची बेहोश हो गई है जल्दी आओ।....
आगे अगले भाग में..


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लेखक-: देवेश आदमी (प्रवासी)
पट्टी पैनो रिखणीखाल
(देवभूमि उत्तराखंड)
सम्पर्क-:8090233797

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