Thursday 24 August 2017

इस मुद्दे पर जरा गहराई से गौर करें : बहस को आगे बढ़ाने की गुजारिश ,कौन-सी है कुमाऊनी की कविता-परंपरा -By Laxman Singh Bisht Batrohi


दो साल पहले उत्तराखंड के जौनसार भाबर की लोक कविता परंपरा पर फेसबुक पर युवा एक्टिविस्ट और लेखक सुभाष तराण का एक विचारोत्तेजक आलेख प्रकाशित हुआ था उसमें इस बात का दर्द साफ झलकता था कि मुख्यधारा की साहित्यिक परम्पराओं ने लोक अभिव्यक्ति के स्वर को न सिर्फ हाशिए में डाल दिया है, उसके स्थान पर समृद्ध भाषाओँ की साहित्यिक मान्यताओं को उस पर थोप भी दिया है.
शायद यह संकट हमारी नई दुनिया में सभी लोक-भाषाओँ में दिखाई दे रहा है. विस्तार में न जाकर सिर्फ कुमाऊनी के सन्दर्भ में अपनी बात कहूँगा. कुमाऊँ में लिखित साहित्य की परंपरा वैसे तो अठारहवीं सदी के आखिरी वर्षों में सामने आये कवि गुमानी से शुरू होती है मगर इसे विधिवत विस्तार दिया आजादी के बाद छठे-सातवे दशक के कवियों की कविताओं ने. इस बीच मौखिक और लिखित दोनों कविताओं के रूप में अभिव्यक्ति होती रही मगर यह बात भी साफ हो गयी कि लिखित कविता की परंपरा में लोक स्वर धीरे-धीरे गायब होता चला गया.
1973 में जब कुमाऊँ और गढ़वाल विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, इस बात की आवश्यकता महसूस की गयी कि यहाँ की लोक भाषाओँ के साहित्य को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाये.
वर्ष 1972-73 में प्रख्यात गणितज्ञ और बीआइटी के कुलपति पद्मश्री शुकदेव पांडे ने नैनीताल से एक पत्रिका 'उत्तराखंड भारती' का प्रकाशन आरम्भ किया जिसके संपादन का दायित्व मुझे सौपा गया. करीब साल भर के बाद हम लोगों ने उसमें कुमाऊनी में लिखे साहित्य को प्रकाशित किया और तीन रचनाकारों का चयन किया. ये रचनाएँ थीं : चारू चन्द्र पांडे की 'पुन्तुरियां', शेर सिंह बिष्ट 'अनपढ़' की 'पारबती को मैतुड़ा देश' और गिरीश तिवारी 'गिर्दा' की 'रत्ते ब्याण'. तब तक भी यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि कुमाऊनी कविता में लोक कविता के दो स्वर हैं : शहरी और ग्रामीण. पांडे जी की कविताएँ पहली कोटि की और बाकी दो लोगों की कविताएँ दूसरी कोटि की हैं. पहले प्रकार की कविताओं की भाषा पर भी शहरों में बोली जाने वाली कुमाऊनी का प्रभाव साफ दिखाई देता था. आने वाले वर्षों में भी इन तीन कवियों की परंपरा साफ दिखाई देने लगी. इन तीनों कवियों में भी शेर सिंह बिष्ट 'अनपढ़' और चारू चन्द्र पांडे की कविताएँ मुख्य रूप से चर्चा में रहीं. तमाम दूसरे कवियों के साथ जो कविता-संग्रह प्रकाशित हुए उनमें सर्वाधिक चर्चा इन्हीं दो कवियों के संग्रहों की रही.
अस्सी के दशक में जब एम् ए (हिंदी) के एक वैकल्पिक प्रश्नपत्र के रूप में कुमाऊनी भाषा और साहित्य का पाठ्यक्रम बनाया जा रहा था तो एक पाठ्यपुस्तक की तलाश हुई. उन दिनों मैं हिंदी विभाग का अध्यक्ष और संयोजक था और मैंने इसके लिए शेरदा 'अनपढ़' के संग्रह 'मेरि लटि पटि' को सबसे उपयुक्त पाया. यह संग्रह कुमाऊनी कविता का एकदम नया आयाम सामने रखता है. भाषा और विषयवस्तु दोनों ही रूपों में. अपने भौगोलिक परिवेश का जितना जीवंत और प्रभावशाली चित्र इस संग्रह की कविताओं में देखने को मिलता है, वह उस वक्त ही नहीं, आज तक भी दुर्लभ है. मनुष्य की नियति और नश्वरता के साथ-साथ मानवीय संभावनाओं को लेकर जो चित्र इन कविताओं में उकेरे गए हैं, वे इन कविताओं को विश्व-कविता के समकक्ष ला खड़ा करते हैं. इस बीच शेरदा की कविताओं को लेकर अनेक लेख लिखे गए, उनका व्यापक विवेचन हुआ, दर्जनों लघु शोध और पीएच. डी. के लिए प्रबंध लिखे गए. 'अनपढ़' कवि स्नातकोत्तर कक्षाओं में पढाया जाने लगा. और देखते-देखते कुमाऊनी कविता का प्रतिनिधि स्वर बन गया.
मगर देखते-देखते कवि शेरदा में एक अजीब फर्क महसूस होने लगा. मानवीय नियति की कविताओं को शेरदा हास्य-कविताओं की तरह पढ़ने लगे. पाठक और श्रोता तो कविताओं में चित्रित विडम्बनाओं और व्यंग्य को सुनकर हँसता था, शेरदा उनकी हंसी के साथ खुद भी ठहाके लगाने लगे. श्रोता उनकी 'हास्य' कविताओं की लगातार फरमाइश करने लगे, कवि और श्रोताओं की हंसी के बीच देखते-देखते शेरदा एकाएक 'हास्य कवि' बन गए और इस तरह एक गंभीर कवि के रूप में वो हाशिए में चले गए. दुर्भाग्य से यह एक तरह से कुमाऊनी लोक-काव्य-परंपरा की भी असामयिक मृत्यु साबित हुई.
इसी बीच उभरे कुमाऊनी कवि के रूप में गिरीश तिवारी 'गिर्दा'. कुमाऊनी के क्रन्तिकारी कवि. भाषा और काव्य-विषय को देखते हुए गिर्दा हिंदी-उर्दू के कुछ लोकप्रिय कवियों से प्रभावित थे, कुमाऊँ हिंदी क्षेत्र का ही एक हिस्सा है, इसलिए उनकी चर्चा हिंदी के चर्चित कवियों के साथ होने लगी. वे कुमाऊनी के प्रतिनिधि कवि बन गए हालाँकि उनकी कविताओं में कुमाऊँ का लोक-समाज सिरे से गायब था. वह एक तरह से कुमाऊनी के जरिये चित्रित किया गया हिंदी समाज था.
अगर आप कुमाऊनी की काव्य-यात्रा का अवलोकन करें तो एक दशक पहले तक भी यह साफ दिखाई देता था कि हर नया कवि भाषा और संवेदना दोनों स्तरों पर शेरदा को नक़ल करता हुआ साफ दिखाई देता था जब कि आज यह स्थिति गिर्दा के प्रति दिखाई देती है. वास्तविकता यह है कि गिर्दा कभी शेरदा की जगह नहीं ले सकते. वो दो अलग-अलग धाराएँ हैं, एक कुमाऊँ की लोक कविता का विस्तार है जब कि दूसरा जनपक्षीय कविता का विस्तार.
कुमाऊनी कविता आज जो अपने परिवेश की आशा-आकांक्षाओं से कटी हुई दिखाई दे रही है, शायद उसका कारण भी यही है.
लोक भाषा की अभिव्यक्ति लोक समाज के कारण है, इसी कारण उसकी जीवन्तता भी. लोक अपने स्वभाव से ही क्रन्तिकारी होता है, उस पर क्रांति आरोपित करने की कोशिश की जाएगी तो उसका लोक मुरझा जायेगा. शेरदा और गिर्दा दोनों की जगह अलग-अलग है, एक की जगह लोक में है तो दूसरे की मुख्यधारा के समाज और साहित्य में. दोनों अलग-अलग नहीं हैं मगर दोनों की जगहें अलग हैं.

Laxman Singh Bisht Batrohi 

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