हे गिर्दा !!
तुम बहुत याद आते हो
हे गिर्दा !!
तुम अभी भी इन वादियों गाते हो।
तुम पहाड़ के जनमानस के हृदय में रहते हो,
तुम खामोश होकर भी अपनी कविता कहते हो।
अभी वह दिन आया नहीं,
जो तुम लाना चाहते थे।
हाँ वह सब घट रहा है यहाँ,
जिससे तुम चेताना चाहते थे।
लेकिन कोई तो जरुर लेकर आएगा वह दिन।।
तुम एक बार किसी अन्य रूप में पहाड़ में आ जाओ,
दोगले मतलबी हो गए है यहाँ तुम ही वह दिन लाओ।
कवि के रूप में आओ या किसी जननायक के रूप में,
अंधा हो चूका है मानव प्राकृतिक संशाधनो की भूख में।
हम तुमारे साथ चलकर सत्ता के राजाओं से लड़ना चाहते है,
तुम्हारी कविता के बल पर ये हालात बदलना चाहते है।
प्रदीप सिंह रावत "खुदेड़"
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