Thursday 20 October 2016

Mouri Mela Tamlag Gaon Patty Gargwadsyun Distric Pauri Garhwal Uttrkhand

उत्तरखंड में धार्मिक मेले हर साल लगते है। क्योंकि यहाँ पग-पग पर देवी देवताओं का वास है। जिस कारण इस प्रदेश को देव भूमि के नाम से भी जाना जाता है इसके अलावा उत्तराखंड को बिभिन्न और नामो से भी जाना जाता है। ऋषि मुनियों के घोर तप के कारण इस भूमि का नाम तपस्थली पड़ा। हिमालय पर्वत होने के कारण इस प्रदेश को हिमवंत प्रदेश के नाम से पुकारा जाता है बाबा केदार के वास के कारण इसे केदारखंड के नाम से भी जाना जाता है| वैसे तो यहाँ पर लोगों कि अपनी अपनी कुल देवियाँ होती है जिसकी लोग समय समय पर पूजा करते रहते है। इसके आलावा भी पूरे गढ़ कुमौ में धार्मिक मेले शुभ घडी और लगन के अनुसार लगते रहते है। पर इन धार्मिक मेलों में लगने वाले तीन प्रमुख मेले जिनका आयोजन १२ साल के बाद होता है। कुम्भ मेला, नन्दा राज जात,और मौरी मेला, इन तीनों धार्मिक मेलों अपना एक बिशष्ट महत्व है। 
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कुम्भ मेला का आयोजन हरिद्वार में गंगा तट पर होता है। और माँ नन्दा काआयोजन चमोली जिले के नॉटी गाँव से शुरू होकर यह यात्रा कुमौ के कुछ भूभागों से होते हुए हिमालय पर्वत पर जाकर पूर्ण होती है। 
मौरी मेले का आयोजन पौड़ी जिले में गगवाड़स्यूँ पट्टी के अंतर्गत पड़ने वाले ग्राम सभा तमलाग में किया जाता है। अगर इस मेले को समय के खांचे में मापा जाये तो यह पूरे विश्व का सबसे ज्यादा दिनों तक चलने वाला धार्मिक मेला है इस धार्मिक मेले कि अवधि छः महीने तमलाग गाँव में और समापन के बाद अगले छः महीने सबदरखाल के कुण्डी गाँव में है, इसमें हर रोज दिन और रात के कुछ पहर पांडव का अवाहन किया जता है। इस मेले का शुभारम्भ २२ गते 
मर्गशीर्ष में होता है, तथा इसकी समापन तिथि २२ गतै अषाढ़ है। इन छः महीनों के मध्य पूर्वजों द्वारा ग्राम के मध्य एक सुंदर भैरव मंदिर के परागण में दिब्य शाक्तियों व ग्राम वासियों द्वारा पांडव नृत्य होता रहता है। इस अवधि काल में इस मेले में लाखों लोग सिरकत करके पुण्य कमाते है यह मेला पांडव से सम्बधित है।
मौरी क्या है यह क्यों मनाई जाती है? मौरी का अर्थ क्या होता है? और इसका नाम मौरी क्यों पड़ा? इसका आयोजन ग्राम सभा तमलाग और कुण्डी में ही क्यों किया जाता है?
''मौरी'' शब्द माहौरू'' शब्द का अपभ्रश रूप है मौरी शब्द माहौरू से बना है इस शब्द का जिक्र एक जागर में बड़े स्पष्ट रूप से होता है। 
दिशा कूs माहौरू, माहौरू लगाण
बांझू माहौरू, माहौरू लगाण
भैजी चल्दू बणाण, माहौरू लगाण
इस मेले कि समाप्ति इस माहौरू शब्द की ब्याख्या को पूर्णता प्रदान करती है। मौरी शब्द का अर्थ होता है दान देकर किसी बंजर इलाके को हरा-भरा करके समृद बनाना। अब सवाल यह उठता है की आखिर दान देकर किसको समृद बनाया गया। दन्त कथाओं में कहते है की पांडव की एक धर्म बहन थी जिसका नाम रूपेणा था। जिसका विवाह नारायण के साथ हुआ था। एक बार नरायण नदी के किसी कुंड में स्नान कर रहे थे वही उस नदी के ऊपर वाले कुंड कुसमा कुवेण नाम की एक नारी भी स्नान कर रही थी जो दिखने में बहुत सुंदर थी। कहते है की उसकी सुनेहरी लटे थी। स्नान करते समय उसकी एक लट टूटकर नारायण की ऊँगली से उलझ जाती है। नारायण इस लट को देख कर अचंभित रह जाता है। और अपने मन में सोचता है कि जिस नारी की लट ही सोने की है तो वह खुद कितनी ख़ूबसूरत होगी वह उस लट के सहारे कुसमा तक पहुचते है। तथा कुसमा के रूप सौंदर्य यौवन को देखकर हमेशा के लिए कुसमा कुवेण के हो जाते है। इस दौरान वह अपनी राज रानी रूपेणा तथा राज पाठ और अपने भावी कुलवंशों को भूल जाते है।
तमलाग गाँव 
इस समय का लाभ उठाकर कुछ राक्षस उसके राज्य पर हमला 

कर उसके हरे-भरे राज्य को उजाड़कर बंजर बना देते है। तथा उसके पुत्रों को मार देते है। रूपेणा को अपने राज्य का सर्वनाश और पुत्रों की अकाल मृत्यु से बहुत बड़ा आघात पहुचता है। तब उसे इस दुःख की घडी में अपने धर्म भाई पांडव का स्मरण आता है। और वह यह सोच कर हस्तिनापुर आ जाती है की मेरे भाई मेरी मदद जरुर करेंगे। हस्तिनापुर आकर जब वह अपनी सारी दास्ता कुंती माता को सुनती है। उसकी दुःख भरी दास्ता सुनकर कुंती उसे बचन देती है कि मै तेरे राज्य को 
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एक बार फिर खुशहाल और समृद बनाऊंगी। तुझे जो भी दान चाहिए मै वह दान देकर तुझे अपनी बेटी की तरह विदा करुँगी। इस प्रकार रूपेणा कुंती से दान में भतीजा भिभीसैण, भतीजी भभरोन्दी, कल्यलुहार, नागमौला तथा काली दास ढोली की मांग करती है।


काली दास ढोली जिसे समस्त ढोल सागर का ज्ञान था आज की तारीख में यह लोग हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग है। अगर मै सरल शब्दों में यह कहूं की मौरी मेला का अर्थ ही ढोल बादक है तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। अगर इनकी यह बिद्या ज़िंदा है तो मौरी मेला है अन्यथा आने वाले समय में यह मेला अपना अस्थित्व् खो देगा। इसलिए हमें इनकी इस बिद्या और इनकी कला को ज़िंदा रखने के लिए अभी से उन्चित कदम उतने होंगे जिससे हम अपनी आने वाली पीढ़ी को इस अमूल्य धरोहर को देने में सक्षम हो सके। इस प्रकार पांच पांडव अपनी धर्म बहन रूपेणा को दान में सब खुछ देकर उसे उसकी थाती तक विदा करते है। और इस प्रकार रूपेणा का राज्य एक बार फिर अन्न धन से खुशाल और समृद्ध हो जाता है।
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यह इस मेले का अंतिम दृश्य होता है यह दृश्य काफी भावुक होता है।तमाम देवी देवता रांसा, ऐसा अलाप जिसमे मन करुणा में आनंदित होता है। लगते है लोगों की आँखों में अंसधरा बहने लगती है।यह दृश्य ऐसे प्रतीत होता है मनो लोग अपनी बेटी को विदा कर रहें हो। पूरा वातावरण पांडव भक्तिमय हो जाता है। लोग एक दूसरे को गले से लगते है। और फिर आने वाले बारह साल बाद इस मेले के कारण अपने पित्र भूमि में मिलने तथा इकट्ठे होने का संकल्प लेते है। यह मेला केवल ग्राम सभा तमलाग कुंजेठा के गाँवों वालों को ही इस देव कार्य में इकट्ठे होने का काम नहीं करता अपितु गगवाड़स्यूं पट्टी के आलावा आस-पास में पड़ने वाली पट्टियों के गाँवको भी एक साथ लाने का कार्य करता है।  दूसरा सवाल यह है की यह मेला तमलाग गाँव में ही क्यों होता है। तो इस बारे में मानपति दास बताता है जब पांडव अपने वनवास काल के समय गढ़वाल से गुजर रहे थे तो उनका कुछ दिन का वास तमलाग गाँव में हुआ था। गाँव वालों ने पांडवो का आदर संस्कार अपने बेटों जैसा किया था। इस कारण माता कुंती ने तमलाग गाँव को अपने ससुराल की उपाधि दी। जिस कारण तमलाग गाँव वाले हर १२ साल बाद पांडव का बिशेष आवाहन करते है। इसी प्रकार सबदरखाल के कुण्डी गाँव में भी पांडव ने कुछ दिन का वास किया था तो माता कुंती ने कुण्डी गाँव को अपने मायके की उपाधि दी 
मौरी मेले में उमड़ी भीड़ 
इसलिए इस मेले में कुण्डी गाँव की अहम् भूमिका होती है। और मेले के दिन ग्राम सभा तमलाग कुंजेठा के पांडव कुण्डी के पांडव को निमंत्रण देकर उन्हें आदर पूर्वक ढोल दामो के साथ गाँव की सीमा पर उनकी अगवाई करके चांदणा चौक(मंदिर के पास) में लाते है। कुण्डी गाँव के देव पांडव और नर नारी रांसे लगाते हुए अपने नृत्य स्थल तक पहुचते है, इस दृश को हजारों लोग आस-पास कि छतों से देखकर अपने आप को धन्य समझते है। इस वक्त असे प्रतीत होता है मनो तेतीस कोटि देवी देवता आज धरती पर उतर आयें हो। सारा वातवरण पांडव भक्तिमय हो जा जाता है। भक्तगण पूरी रात देवताओं का आशीर्वाद लेते रहते है, कुण्डी गाँव के अलावा इस मेले में गगवाड़स्यूं पट्टी के और गाँव भी सिरकत करते है। इन गाँव को ग्राम सभा तमलाग के द्वारा निमंत्रण भेजा जाता है। ऐ प्रमुख़ गांव है, गुमाई,पुर सुमेरपुर, पंडोरी, चमल्याखल,और नेगयाना, ये सारे गाँव अपनी पतकाओं और ढोल दमों के साथ इस मेले में सिरकत करते है। इन गाँव का अथिति देवो भावो कि तर्ज पर गाँव में स्वागत किया जाता है। इस प्रकार भक्तजन रातभर पांडव नृत्य करते रहते है। और प्रातः काल सारे देवी देवता गाँव के धारा मगरों में स्नान करके वापस मेला स्थल चांदणा चौक में आते है। कुंती माता सभी देवी देवताओं पर रौली ज्यूंदाल (चावल कि पिटाई) लगाती है। इसके बाद हजारों नर नारी पांडव नृत्य करते हुए सुमेरपुर स्थित जंगल में चीड़ के पेड़ लेन के लिए जाते है।
जहाँ इन पेड़ों पर कुछ दिन पहले ज्यूंदाल् लगाकर उन्हें चिन्हित (न्यूती) किया जाता है। ज्यूंदाल लगते ही ये पेड़ दैविक चमत्कार से खुद ब खुद कांपने लगते है। मेले के अंतिम दिन कुण्डी तथा तमलाग गाँव के भीम, बजरंबली हनुमान, और नारायण इन पेड़ों पर चढ़कर इन्हे जड़ सहित उखड़ते है। इस दैविक चमत्कार को देखने के लिए सुमेरपुर के जंगल में लाखों लोगों का जनसमूह एकत्र रहता है। इन पेड़ों को जड़ से उखडकर बिना जमीं पर टिकाये जैंती की थाती में लाया जता है। तथा इनकी पूजा अर्चना करके कुछ दिन पश्चात इन्हे नदी में बिसर्जित कर दिया जाता है। इन पेड़ों को जड़ सहित उखारड़कर लेन के पीछे भी एक दन्त कथा है। (भाग-जोग ) पार्ट दो को लिंक ओपन करके देखिये,
देव वन में दैविक चमत्कार देखने जाते लोग 
कहते है कि पांडव के पिता पांडू राजा और कुरूक्षेत्र के युद्ध में मारे गए अनेक सगे समन्धियों की अकाल मृत्यु से मुक्ति प्रधान करने के लिए पांडव द्वारा यज्ञ का आयोजन किया गया था, इस यज्ञ को सफल बनाने के लिए उन्हे गैंडे कि खाल(खगोटी) की अवश्यकता थी। यह खाल(खगोटी) केवल नागलोक में ही मिलनी थी। जहाँ की रानी वासुदेवा(उलपी) थी। जब पांडव के बीच इस बात पर मंथन चल रहा था कि नागलोक से गैंडे कि खाल(खगोटी) कौन लेकर आयेगा। उसी रात अर्जुन के सपने में नागलोक कि रानी अर्जुन के सपने में आती है और धनजय कि वीरता को ललकारती है। और कहती है कि अगर तू सच्चा क्षत्रीय है तो मुझे पाँसौ (चौपड़) में हराकर ले जा। अर्जुन वासुदेवा कि इस चुनौती को स्वीकार करता है। और अपने बड़े भैया से नागलोक जाने की अनुमति मांगता है धर्मराज से अनुमति लेने के बाद जब अर्जुन नागलोक जाने के लिए तैयार होने लगता है तो द्रौपदी भी अर्जुन के साथ चलने कि जिद्द करने लगती है। अर्जुन द्रौपदी को काफी समझता है पर वह नहीं मानती और अंत में अर्जुन द्रौपदी की स्त्री हट हार जाता है और उसे अपने साथ ले जाने को तैयार हो जाता है। इस प्रकार जब 
अर्जुन और द्रौपदी नागलोक जाने के लिए एक घनघोर वन से गुजर रहे थे तभी अर्जुन द्रौपदी से विश्राम करने के लिए कहता है और दोनों के दोनों दो जुड़वाँ पेड़ों के निचे विश्राम करने लगते है। इस बीच द्रौपदी को घनघोर निंद्रा आ जाती है। अर्जुन द्रौपदी को नींद में छोड़कर अकेले ही नागलोक चला जाता है। इधर जब द्रौपदी नींद से जागती है तो अर्जुन को वहाँ पर ना पाकर समझ जाती है कि अर्जुन मुझे छोड़कर अकेले ही नागलोक चला गया है। तब वह उन दोनों जुड़वाँ पेड़ों को वचन देती है कि अगर मेरा अर्जुन सुख शांति से वापस घर हस्तिनापुर आ जायेगा तो मै तुम्हें जड़ सहित अपनी थाती में ले जाकर तुम्हारी बिधि विधान से पूजा करवांगी। कुछ समय पश्चात जब अर्जुन रानी वासुदेवा को पांसों में हराकर गैंडे की खाल(खगोटी) के साथ वापस हस्तिनापुर आता है तब द्रौपदी इन दोनों पेड़ों को जड़ सहित उखाड़कर इनकी पूजा करवाती है। तथा गैंडे कि खाल से यज्ञ सफल बनाकर राजा पांडु कि आत्मा को मोक्ष प्रदान करते है l
मौरी मेला में पहले छः महीने का पण्डो तमलाग गाँव और मेले के सम्पति के बाद छः महीने कुण्डी गाँव में नाचते है। कुण्डी गाँव में दो केले के बृक्ष को जड़ सहित उखाड़ कर लाया जाते है।अक्सर लोगों ने यह भ्रम फैलाया है कि गैंडे के प्रतीक के रूप में रखे खाडू (भेड़) के साथ लोग छीना झपटी करते है जिससे भेड़ की दर्दनाक मौत होती है, यह बात सरासर मिथ्य है। लोग भेद के साथ छीना झपटी नहीं करते है बल्कि उस छूने की कोशिश करते है, कोई उसे इधर से छूने की कोशिश करता है तो कोई उसे उधर से जिससे वह छीना झपटी का रूप ले लेता, इस भेड़ को छूने की पीछे एक कथा है, 
धर्मशास्त्रों के अनुसार प्राचीन काल में गयासुर नामक शक्तिशाली असुर भगवान विष्णु का भक्त था। उसकी निरंतर तपस्या से देवगण चिंतित होकर विष्णुं भगवान जी के पास गये विष्णुं जी ने सभी देवताओं समेत गयासुर के सामने उपस्थित होकर उसकी तपस्या भंग करने हेतु दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। गयासुर ने सभी देवताओं से अधिक पवित्र होने का वरदान मांगा। भगवान तथास्तु कह दिया। इसके बाद तो घोर पापी भी गयासुर के शरीर को छू कर स्वर्ग लोक जाने लगे। जिससे स्वर्ग लोक में अराजकता फ़ैल गयी, इंद्र इसका समाधान निकले के लिए भगवान विष्णुं जी के पास गए। भगवान विष्णुं ने गयासुर से सबसे पवित्र जगह पर यज्ञ करने की बात कही और कहा की इस धरती पर सबसे ज्यादा पवित्र जगह आपका शरीर है, और योजना के तहत यज्ञ के नाम पर गयासुर का सम्पूर्ण शरीर मांग लिया। गयासुर ने भगवान विष्णुं की बात स्वीकार कर ली और दक्षिण दिशा की तरफ सर और उत्तर दिशा की तरफ पाँव करके धरती पर लेट कर अपना शरीर समर्पित कर दिया, यज्ञ समाप्त होने के बाद यज्ञ की रख को जब उसके सर के बीच में लगाया गया तो वहां पर सिंग निकल आया और गयासुर ने गैंडे का रूप ले लिया, जिस इंद्र ने नाग लोक में भेज दिया की वहाँ कोई नहीं जा सके। 

इस मेले में अहम् भूमिका ढोल वादक निभाता है। कुछ समय तक इस मेले के मुख्य आकर्षण मूली दास, खिलपत्ति दास थे जिन्होंने कई वर्षों इस मेले में ढोल वदाक की भूमिका निभायी। अब खिलपत्ति दास जी लड़का मानपत्ति दास तथा दो अन्य दास चन्दन दास (फकीरा) और प्रेम दास, इस कार्य को भली भांति निभा रहे है। इन सब को ढोल सागर के आलावा  पण्डो वार्ता का अच्छा ज्ञान है। 




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