Monday, 25 September 2017

“कड़ाली” पर हुई एक रिसर्ज से पता चली अहम् जानकारी


हरिद्वार (महावीर नेगी)। “कड़ाली” जिसे पहाड़ की बिच्छू घास भी कहा जाता है जिसे अक्सर पहाड़ में बच्चों की शैतानी पर उन्हे सजा देने के काम में लाया जाता था। लेकिन बदलते वक्त के साथ पता चला कि कड़ाली न केवल बच्चों की शैतानी को रोकने में काम आती है इसका उपयोग रोजगार के अवसर पैदा करने और पलायन पर लगाम लगाने की भी क्षमता हैं। हरिद्वार के एक छात्र ने अपने शोध में यह साबित कर दिया है कि

कड़ाली का फाइबर अन्य फाइबर के मुकाबले न केवल मजबूत है अपितु यह मानव निर्मित फाइबर से सस्ता भी हैं। मंयक पोखरियाल के इस शोध का प्रकाशन अमेरिका की प्रसिद्व टेलर एंड फ्रांसिस ऑनलाइन में भी प्रकाशित हुआ हैं। शोध में पाया गया कि कंड़ाली का फाइबर ऑटोमोबाइल इंडस्ट्रीज, एयरो स्पेस इंडस्ट्रीज,स्पोर्टस इंडस्ट्रीज,फैब्रिकेटेड स्ट्रक्चर,डोरपैनल,हेलमेट आदि बनाने में सहायक है।

20 सितंबर को अमेरिका की टेलर एंड फ्रांसिस ऑनलाइन में जब कंडाली को लेकर हरिद्वार के छात्र मंयक पोखरियाल का शोध प्रकाशित हुआ तो यह साबित हो गया कि जंगल में पायी अपने आप उगने वाली यह घास कितने काम की हैं। मंयक ने बताया कि उसने कंड़ाली हिमायलन नेट्टल पर 2013 में मास्टर ऑफ़ टेक्नोलॉजी के दौरान शोध शुरु किया था। जिसे करीब 2015 में पूरा कर लिया गया था। उन्होने बताया कि उन्होने अपने इस शोध में पाया कि उत्तराखंड राज्य के मध्य हिमालयी छेत्र में १२००.३००० मीटर पर पाए जाने वाला पौधा कंडाली हिमालयन नेट्ल के फाइबर को हम कम्पोजिट मैटेरियल्स बनाने में इस्तेमाल कर सकते है। यह एक इको फाइबर है जो मानव निर्मित फाइबर से काफी सस्ता आसानी से उपलब्ध ए कम घनत्व वाला बायो डिग्रेडेबल है। इसको पॉल्मर के साथ मिलकर कम्पोजिट बनाया जा सकता है।इसका फाइबर बास्ट फाइबर की केटेगरी में आने वाला सबसे मजबूत फाइबर है

इस शोध में हिमालयन नेट्टल फाइबर को पहले केमिकल ट्रीटमेंट देने के बाद सुखाकर इसको पॉल्मर के साथ रैनफोर्स किया गया। उसके बाद इस पर विभिन परीक्षण जैसे टेंसिलटेस्ट,इम्पैक्टटेस्ट,वियर टेस्ट किये गए जिसमे यह पाया गया की इसको विभिन्न क्षेत्रों जैसे ऑटोमोबाइल इंडस्ट्रीज, एयरो स्पेस इंडस्ट्रीज,स्पोर्टस इंडस्ट्रीज,फैब्रिकेटेड स्ट्रक्चर,डोरपैनल,हेलमेट आदि बनाने में सहायक है।

मंयक ने बताया कि पूर्व में उत्तरखंड के पहाड़ी इलाके जैसे पौड़ी,चमोली और पिथौरागढ़ आदि क्षेत्रों में लोग इसके फाइबर से रस्सी, धागे,बोरे, चटाई व कपडा आदि बनते थे जो जानकारी के अभाव में अब कम हो गया था यह पौधा १२०० मीटर की उचाई से ऊपर प्राकर्तिक रूप से बंजर भूमि, रास्ते एवं सड़को के किनारे स्वतः ही उग जाता है।
पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाने वाला हिमालयन नेट्टल रोजगार देने और पलायन रोकने में सहायक होने के साथ साथ लोगो की आर्थिक स्थिति को सुधारने में सहायक सिद्ध होगा। मंयक ने बताया कि इस शोद्ध में उनके गाइड एवं पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ लालता प्रसाद ए सहायक आचार्य हिमांशु प्रसाद रतूड़ी उत्तराखंड बम्बू एंड फाइबर डेवलपमेंट बोर्ड के मैनेजर दिनेश जोशी, आगाज़ फाउंडेशन के जे0 पी० मैथानी का पूर्ण सहयोग किया।

तू काहे का पहाड़ी बे"खुदेड़" ?


मंडवे की रोटी तूने खायी नहीं है "खुदेड़" ।
कछ्बोळी तूने कभी चबाई नहीं है ।।
'बल' और 'ठैरा' तू भाषा में लगता नहीं है।
उचेणु तू अब चढ़ाता नहीं है।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

मंडाण तू नाचता नहीं है "खुदेड़" !
देवता तू पूजता नहीं है।।
काफल के हडले तू चबाता नहीं है!!
मोटा आनाज अब तू पचाता नहीं है।।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

विवाह में धोती पहनता नहीं है "खुदेड़" !!!
पहाड़ी हिसाब से तू रहता नहीं है।।
साहपाटा विवाह में तू ले जाता नहीं!!
पहाड़ी भोजन तू बनाता नहीं।।
पिछोड़ा तू महिलाओं को ओढ़ता नहीं!!
रस्म कंगन की तू तोड़ता नहीं।।
काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

बारात में ढोल-दमो तेरे आते नहीं है "खुदेड़" !!
मांगल, गाळी अब शादी में तेरी गाते नहीं है।।
पितगा अब तू बनाता नहीं है!!
बेदी अब तू सजाता नहीं।।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

भाषा तू बोलता नहीं है "खुदेड़" !!
अपनों के अत्यचार पर खून तेरा खौलता नहीं।।
इमानदारी तुझमे अब दिखती नहीं!!
मुजफ्फरनगर कृत्य की पीड़ा तुझे चुभती नहीं।।
न्याय के लिए तू लड़ता नहीं!!
पहाड़ का विकास तू करता नहीं।।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

संकट चौद्सी का ब्रत तू मनाता नहीं "खुदेड़" !!
हरेला में जौ तू उगता नहीं।।
फूल देई में फूलों से देळी तू सजाता नहीं!!
पंचमी में गीत तू गाता नहीं।।
उत्रेणी में खिचड़ी तू पकाता नहीं!!
बग्वाल इगास तू मनाता नहीं।।
भेला तू खेलता नहीं!!
पहाड़ के चार दुःख तू झेलता नहीं।।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

कब तक ये झूठा पहाड़ी नाम का तगमा,
लेकर घूमता रहेगा।
पहाड़ का सब कुछ छोड़कर,
खुद को पहाड़ी कहता रहेगा।।
है बे "खुदेड़"

तूने तू अन्य लोगों की तरह,
पहाड़ को पिकनिक स्पॉट बनाया है "खुदेड़" !!
बस चंद रोज आराम के लिए यहाँ बिताया है।।
अगर खुद को पहाड़ी कहता है तू!!
तो पहाड़ी संस्कृति, भेषभूषा, भाषा बोली,
खानपान, और तीज त्यौहार को भी अपनाना होगा।
वरना खुद को पहाड़ी नहीं कहना होगा।
समझा बे "खुदेड़"

प्रदीप रावत "खुदेड़"
25/09/2017

Thursday, 21 September 2017

आज की हलात को बयां करती है मधुसुधन थपलियाल जी की ये ग़ज़ल,

कोच यू जू हमते गोरु कि तरौ हक़ाणु चा 
खाल्ये कि सुख्यूं पराळ दूध घ्यू चाणु चा 








Wednesday, 13 September 2017

Naval Khali जी की वाल से



आज मैं हूँ #कोटद्वार में....मेरे साथ हैं भाई #राजेश #खुगशाल जी !!!भाई खुगशाल जी यूँ तो केटरिंग के व्यवसाय से जुड़े हैं , पर जो खास बात इनको अन्य लोगो से अलग करती है वो है इनका पहाड़ी संस्कृति और परम्पराओ से लगाव !!! इनके द्वारा शादियों में शुद्ध पहाड़ी भोजन उपलब्ध करवाए जाते हैं जिनमे #अरसे, #कंडाली, #गहत का सूप, #फ़ाणु, #चेंसु, #थिचोणि, #झंगोरे की खीर, #बाडी, #प्लयो, #स्वाला, #रोटना आदि !!! इनके द्वारा स्टेज पर पहाड़ी थीम में विलुप्त होते #मांगल गीत
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पुराने समय मे वरनारायण को चिढाने हेतु दी जाने वाली प्यार भरी गालियां, ओखली में कूटती महिलाएं, जन्द्रा पिसती महिलाएं, छाँस छोलती महिलाएं, #ढोल-दमाऊ की थाप के साथ पहाड़ी परम्पराओ को जीवित रखने की दिशा में भाई राजेश जी के प्रयास वाकई सराहनीय हैं !!!! 
राजेश भाई का कहना है कि अपनी #पहाड़ी संस्क्रति और विलुप्त होती परम्पराओं से उनका गहरा लगाव है ,इसके साथ ही इनकी दुकान पर पहाड़ी #दालें और अनाज के लिए #विदेशोसे भी लोगो के फोन आते हैं !!! सच कहूँ तो राजेश भाई लोगों को अपनी जड़ों से जोड़ने का का कर रहे हैं।
भाई राजेश जी को ढेरों शुभकामनाएं !!!!!! इनसे सम्पर्क करने के लिए कॉल कर सकते हैं ---- 9837653672


Tuesday, 12 September 2017

उत्तराखंड के एक ऐसे बहुमूल्य उत्पाद की जिसका नाम सुनते ही हमें इससे अपना परम्परागत सम्बन्ध याद आने लगता है। गहत Macrotyloma uniflorum L.उत्तराखण्ड में उगायी जाने वाली एक महत्वपूर्ण फसल है डॉ राजेंद्र डोभाल महानिदेशक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् उत्तराखडं।

उत्तराखंड के एक ऐसे बहुमूल्य उत्पाद की जिसका नाम सुनते ही हमें इससे अपना परम्परागत सम्बन्ध याद आने लगता है। गहत उत्तराखण्ड में उगायी जाने वाली एक महत्वपूर्ण फसल है जिसका वैज्ञानिक नाम Macrotyloma uniflorum L. जो कि Fabaceae कुल का पौधा है। इसे ही Dolichos uniflorum भी कहते हैं। वैसे तो गहत का मुख्य स्रोत अफ्रीका माना जाता है लेकिन भारत में इसका इतिहास बहुत पुराना है। विश्व में पाए जाने वाली कुल 240 प्रजातियों में से 23 प्रजातियां सिर्फ भारत में पायी जाती हैं जबकि शेष प्रजातियां अफ्रीका में पायी जाती हैं। In Association with Amazon.in
गहत या गहथ को इसके अलावा और भी बहुत नामों से जाना जाता है जैसे कि अंग्रेजी में Horse gram, हिन्दी में कुलथ, तेलुगू में उलावालु, कन्नड़ में हुरूली, तमिल में कोलू, संस्कृत में कुलत्थिका, गुजराती में कुल्थी तथा मराठी में डुल्गा आदि। भारत के अलावा चीन, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका तथा इंडोनेशिया में भी गहत का उत्पादन किया जाता है। मुख्य रूप से भारत में गहत का उत्पादन लगभग सभी राज्यों में किया जाता है लेकिन कुछ प्रमुख राज्यों से भारत के कुल उत्पादन में 28 प्रतिशत कर्नाटक, 18 प्रतिशत तमिलनाडु, 10 प्रतिशत महाराष्ट्र, 10 प्रतिशत ओडिशा तथा 10 प्रतिशत आंध्र प्रदेश का योगदान है।
भारत में गहत मुख्यतः रूप से असिंचित दशा में उगाया जाता है और जहां तक उत्तराखण्ड में गहत उत्पादन है यह परम्परागत रूप से दूरस्थ खेतो में उगाया जाता है क्योंकि गहत की फसल में सूखा सहन करने की क्षमता होती है, साथ ही नाइट्रोजन फिक्सेशन करने की भी क्षमता होती है। इसकी खेती के लिये 20 से 30 डिग्री सेल्शियस, जहाँ 200 से 700 मिलीमीटर वर्षा होती है, उपयुक्त पायी जाती है। गहत बीज का उत्पादन भारत में 150 से 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर किया जाता था, मगर आई0सी0आर0आई0एस0ए0टी0, हैदराबाद द्वारा वर्ष 2005 में उच्च गुणवत्ता वाली प्रजाति विकसित की गयी जिससे गहत बीज उत्पादन बढ़कर 1100 से 2000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया है। गहत की मुख्यतः 02 प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमें से कि एक जंगली तथा दूसरी खेती कर उगायी जाती हैं। यहां सामान्यतः गहत के बीज लाल, सफेद, काला तथा भूरा रंग के पाये जाते हैं।


गहत को सामान्यतः दाल के रूप में प्रयोग किया जाता है जो कि गरीबों के भोजन में शामिल किया गया है। गहत में प्रोटीन तथा कार्बोहाईड्रेड की प्रचूर मात्रा होने के कारण आज गहत का उपयोग सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न खाद्य तथा पोषक पदार्थों के रूप में किया जा रहा है। इसके बीज में कार्बोहाईड्रेड 57.3 ग्राम, प्रोटीन 22.0 ग्राम, फाइबर 5.3 ग्राम, कैरोटीन 11.9 आई0यू0, आयरन 7.6 मिलीग्राम, कैल्शियम 0.28 मिलीग्राम, मैग्नीशियम 0.18 मिलीग्राम, मैग्नीज 37.0 मिलीग्राम, फोस्फोरस 0.39 मिलीग्राम, कॉपर 19.0 मिलीग्राम तथा जिंक 0.28 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते हैं।परम्परागत रूप से ही गहत का उपयोग इसकी विशेषताओ के अनुरूप किया जाता है। इसकी प्रकृति गरम माने जाने के कारण इसका मुख्य उपयोग सर्दियों में या अधिक ठंड होने पर अधिक किया जाता है। दास, 1988 तथा पेसीन, 1999 द्वारा अपने शोध में गहत को कैल्शियम तथा कैल्शियम फास्फेट स्टोन को गलाने तथा बनने से रोकने के लिये पाया गया। एक आयुर्वेदिक औषधि सिस्टोन में भी गहत को मुख्य भाग में लिया जाता है जो कि किडनी स्टोन के लिये प्रयोग की जाती है। इसके अलावा अन्य विभिन्न शोधों में भी इसके उपयोग को किडनी रोगो के रूप में उपयुक्त पाया गया है। इसमें फाइटिक एसिड तथा फिनोलिक एसिड की अच्छी मात्रा होने के कारण इसे सामान्य कफ, गले में इन्फेक्शन , बुखार तथा अस्थमा आदि में 
प्रयोग किया जाता है। भारतीय कैमिकल टैक्नोलॉजी संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये एक शोध में बताया गया है कि गहत के बीज में प्रोटीन टायरोसिन फॉस्फेटेज 1-बीटा एन्जाइम को रोकने की क्षमता होती है जो कि कार्बोहाईड्रेड के पाचन को कम कर शुगर को घटाने में मदद करता है तथा साथ ही शरीर में इन्सुलिन रेजिसटेंस को भी कम करता है। उत्तराखण्ड में गहत को बाजार उपलब्ध न होने के कारण स्थानीय काश्तकार केवल स्थानीय विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत चावल, नमक एवं नगदी के बदले बेच
देते हैं जबकि राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर में गहत 100 से 200 रूपये प्रति किलोग्राम तक बेचा जाता है। उत्तराखण्ड गहत स्वयं में एक ब्रांड होने के कारण बड़े बाजारों में इसकी मांग रहती है जिसकी औषधीय तथा न्यूट्रास्यूटिकल महत्ता को देखते हुये आज विभिन्न कम्पनियां नये-नये शोध कर उत्पाद बना रही है तथा भविष्य में इसकी बढ़ती मांग हेतु इसके बहुतायत उत्पादन की आवश्यकता है।
राज्य के परिप्रेक्ष्य में गहत की खेती यदि वैज्ञानिक एवं व्यवसायिक रूप में की जाय तथा दूरस्थ खेतो में जो कि बंजर होते जा रहे है में भी की जाये तो यह राज्य की आर्थिकी का एक बेहतर पर्याय बन सकता है।

Thursday, 7 September 2017

गढ़वाली घनाक्षरी छंद- इसी प्रकार की मेरे द्वारा लिखी एक गढ़वाली घनाक्षरी छंद

घनाक्षरी छंद छः चरणों का वर्णनित छंद है। इसमें 31वर्ण होते है, घनाक्षरी छंद में केवल वर्णों की गिनिती की जाती है आधे शब्दों को गिनती में शामिल नहीं किया जाता है। इसके पहले तीन चरणों में आठ वर्ण होते है और चौथे चरण में सात वर्ण आते है। तथा 31 वर्ण गुरु होता है। और जरुरी नहीं कि 31 वर्ण तुक हो।
जैसे -: 8+8+8+7 = 31अंत में गुरु

                               रात रै मे उठा पोड़, सुपन्या मा स्या नि आयीे।
                               सुबेर धारा मा ग्यों मि, स्या तख बी नि पायी ।।

                               सारा दिन तैंकी खुद, तैं कि पराज मा काटी।
                               खलबट समणी एै, कख रै होली लाटी।।

                              वा मे हेनि मि वीं हेनू, मन गौळा भेंटेणो छौ।
                              भैज्या सौरास ज्यू लगि, भूल ग्यों अपडू गौं।।

                              तैंकी तिरपे हाँ व्हे जा, बस डोला लेकिएै जौं।
                              बिना टिप्ड़ा मिल्यां तैंकू, ली जौं तै अपड़ा गौं।।


प्रदीप रावत "खुदेड"
04/09/2017

Tuesday, 5 September 2017

क्या वाकई में फिर एक अंदोलन और होगा उत्तराखंड के पहाड़ों में

क्या वाकई में फिर एक अंदोलन और होगा उत्तराखंड के पहाड़ों में, इस बार का अंदोलन पहाड़ के जल जंगल जमीं और वहां की जवानी को बचाने के लिए होगा, कवि ओम प्रकाश सेमवाल जी की कलम से निकला गीत बहुत कुछ कहता है इस सुलगते अंदोलन के बारे में, इस गीत के माध्यम से उन्होने पहाड़ की पीड़ा को बेखूबी कहा है, ओम बधानी और मीना राणा जी की सुन्दर आवाज के साथ पहाड़ के जनमानस तक इस गीत को पहुँचाया है,
जरूर सुनिए इस गीत को

 

Saturday, 2 September 2017

अन्क्वे अन्क्वे की GARHWALI GEET प्रदीप रावत "खुदेड़"


जरा बाटू हिटण अन्क्वे-अन्क्वे की,
जरा समली चलण अन्क्वे- अन्क्वे की।

मायो बाठू भरि चिपलू होन्दू,
प्रेम की झोळवन बी नि उबांदू।
मठु मठु कैकी सरकुण अन्क्वे-अन्क्वे की।

कडू बोली पर तू भलु बोली,
सभ्यूँ मा मायो भेद न खोली।
खैरी बतेली त बते अन्क्वे-अन्क्वे की।

दौ दान बी दे तू सौ सान बी कै,
पर सरि गगरी रीती कैकी न एै ।
मुठ्यूँ बाँटी तू पर अन्क्वे-अन्क्वे की।

दगडी निभै तिन दूर तक,
दुश्मनी बी निभै मील तक।
अपडों की घात पट लग जांदी,
जरा गाळी देली त दे अन्क्वे-अन्क्वे की।

प्रदीप रावत "खुदेड़"
31/08/2017






Friday, 1 September 2017

ऐसे बचेगा हिमालय मात्र शपत लेने से कुछ नहीं होने वाला इस ‘भगीरथ’ ने भी धरती पर उतारी ‘गंगा’- सच्चिदानंद भारती by Dainik Jagaran Uttarakhand

‘चिपको’ आंदोलन की धरती उत्तराखंड में पिछली सदी के आखिरी दशक में जंगल पनपाने के साथ ही बारिश की बूंदों को सहेजने की ऐसी धारा फूटी, जिसने न सिर्फ सिस्टम को आईना दिखाया, बल्कि जनमानस के लिए प्रेरणा बन गई। सूखी रहने वाली पौड़ी जिले के उफरैंखाल से लगी गाडखर्क की जिस पहाड़ी पर कभी बारिश की बूंद तक नहीं ठहरती थी, आज वहां न सिर्फ हरा-भरा जंगल है, बल्कि जलस्रोत रिचार्ज होने से बरसाती नदी भी जी उठी। इसे नाम दिया गया है ‘गाडगंगा’। 2010 से लोग इस गंगा का पानी पी रहे हैं। भीषण गर्मी में भी इसमें तीन एलपीएम (लीटर प्रति मिनट) पानी रहता है। बदलाव की बयार यूं ही नहीं बही, गाडखर्क की पहाड़ी को यह ‘वरदान’ आधुनिक भगीरथ के रूप में आए सच्चिदानंद भारती के अथक प्रयासों ने दिया। 1पौड़ी जिले में एक छोटा सा गंवई कस्बा है उफरैंखाल। इसी से लगी है गाडखर्क की पहाड़ी, जो सच्चिदानंद भारती के प्रयासों की गवाही दे रही है। एक दौर में चिपको आंदोलन से जुड़े रहे सच्चिदानंद भारती बताते हैं कि वर्ष 1979 में जब वह अपने गांव गाडखर्क (उफरैंखाल) लौटे तो दूधातोली वन क्षेत्र में भी पेड़ों का कटान हो रहा था। इसे देखते हुए शुरू हुई पेड़ों को बचाने की मुहिम। 1987 में पड़े भयावह सूखे का व्यापक असर इस क्षेत्र पर भी पड़ा। फिर शुरू की गई बारिश की बूंदों को सहेज पेड़ बचाने की मुहिम। आंदोलन को नाम दिया गया ‘पाणी राखो’।
महिला मंगल दलों समेत ग्रामीणों की मदद से उफरैंखाल से लगी एकदम सूखी गाडखर्क की पहाड़ी को इसके लिए चुना गया। 1990 में महिला मंगल दलों समेत ग्रामीणों की मदद से 40 हेक्टेयर में फैली इस पहाड़ी पर छोटे-छोटे तालाब खोदने का कार्य शुरू किया। इन्हें नाम दिया गया जलतलैंया। इसके साथ ही जल संरक्षण में सहायक बांज, बुरांस, पंय्या, अखरोट जैसे पेड़ों के पौधे लगाए गए।

फिर तो यह सिलसिला लगातार चलता रहा। 10 साल की कोशिशें रंग लाई और 1999 में गाडखर्क की पहाड़ी न सिर्फ हरी-भरी हो गई, बल्कि बरसाती नाले में भी वर्षभर पानी रहने लगा। जल आंदोलन के रूप में भारती की यह पहल क्षेत्र के दर्जनों गांवों के जंगलों को नवजीवन दे रही है। 2016 में जब राज्यभर में जंगल भीषण आग की गिरफ्त में थे, तब यहां जंगल सुरक्षित रहे।उत्तराखंड के पौड़ी जिले में ‘पाणी राखो’ आंदोलन के सूत्रधार सच्चिदानंद भारती की अभिनव पहल सूखी गाडखर्क की पहाड़ी न सिर्फ हरी-भरी हुई, बल्कि बरसाती नाला भी सदानीरा बनापहाड़ी पर 4000 से अधिक जलतलैंया खोदी गईं। दो लाख पौधे लगाए गए। यह पहल यहां के सौ से ज्यादा गांवों तक पहुंची। उन क्षेत्रों में भी हजारों जलतलैंया बनाई जा चुकी हैं

उत्तराखण्ड बनाम स्वीटजरलैंड - डॉ राजेंद्र डोभाल महानिदेशक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् उत्तराखडं।


हमें याद है कि जून, 2013 में केदारनाथ या कहें तमाम उत्तराखण्ड में दैवीय आपदा आयी थी। उसी दौरान मुझे श्री मोहन मूर्ति जो कि यूरोप में CII के निदेशक थे एवं कोलान, जर्मनी में रहते हैं का एक लेख The Hindu Business line में पढ़ने को मिला जिसमें उन्होने लिखा है कि उत्तराखण्ड, स्वीटजरलैंड नहीं ! दोनो (उत्तराखण्ड एवं स्वीटजरलैंड) की मात्र Topography ही समान नहीं है बल्कि दोनों का आकार करीब-करीब बराबर ही है।

उत्तराखण्ड की जनसंख्या 01 करोड़ से थोड़ा ऊपर है एवं स्वीटजरलैंड की 01 करोड़ के आस-पास है। स्वीटजरलैंड का जनसंख्या घनत्व 190 मानव per sq. Km है जबकि उत्तराखण्ड का 189 मानव per sq. Km है। दोनों जगह प्राकृतिक आपदायें भी आती हैं। यूरोप में 1970 से लेकर 1995 के बीच करीब 150 बड़ी बाढ़े आयी थी लेकिन उससे कोई बड़ी हानि नहीं हुई। कारण यह कि वो अपनी नदियों को Integrated River Basin Management (IRBM) जिसका मुख्य आधार नदी के लिये अधिक जगह (More room for rivers) एवं बाढ़ क्षेत्र में कोई निर्माण कार्य न हो, जिससे नदी का धारा प्रवाह कम हो जाता है। स्वीटजरलैंड अपने यहां बाढ़ की रोकथाम के लिये प्रतिवर्ष 2.5 billion Swiss francs खर्च करता है।
उनके अध्ययन के अनुसार यह भी बात सामने आयी है कि स्वीटजरलैंड का रेल नेटवर्क काफी बड़ा है जो करीब 5063 किलोमीटर है और हर साल 350 मिलियन यात्रियों को सेवा देता है जबकि उत्तराखण्ड में मात्र 345 किलोमीटर रेल नेटवर्क है। स्वीटजरलैंड में कुल बिजली के उत्पादन का 56 प्रतिशत जल विद्युत् एवं 39 प्रतिशत न्यूक्लियर पावर है जो लगभग कार्बन-ऑक्साइड फ्री नेटवर्क है।
होटल उद्योग की बात की जाय तो वर्ष 2011 में स्वीटजरलैंड में 4967 पंजीकृत होटल थे जो लगभग 39 मिलियन रात्रि निवास 01 करोड़ लोगों को सेवायें दे रही है जबकि उत्तराखण्ड में लगभग 02 करोड़ यात्रि आते हैं और यहां करीब 22 पंजीकृत होटल है। बाकी सब अवर्गीकृत श्रेणी जैसे – धर्मशाला, आश्रय, छोटे अतिथि गृह आते हैं।

अगर हवाई सेवाओं की बात करें तो उत्तराखण्ड में 02 मुख्य हवाई अड्डा जौलीग्रांट एवं पंतनगर में हैं जबकि स्वीटजरलैंड में 25 Heliports, 110 transitory helipads, 8 बड़े अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे हैं जहाँ कोई भी आधुनिक जेट उतर सकता है एवं 56 छोटे हवाई अड्डे भी हैं। स्वीटजरलैंड का सार्वजनिक परिवहन दुनिया में सबसे अधिक घनत्व वाला है जिसका आकार 22000 किलोमीटर है एवं वहां लगभग 800 बस मार्ग हैं जो कि स्विस पोस्ट द्वारा संचालित किया जाता है। इसके अलावा 600 funiculars, cable cards, rack railways and chairlifts हैं जो सेकेण्ड की accuracy से चलते हैं।
लेखक ने Jungfrau (स्वीटजरलैंड का सबसे सुन्दर पर्यटक स्थल) की केदारनाथ से तुलना की है जिसमें कहा गया है कि स्वीटजरलैंड में 4000 मीटर से ऊपर ऊँचाई वाले लगभग 24 ग्लेशियर हैं, 3500 मीटर से ऊपर (केदारनाथ के बराबर) लगभग 64 पहाड़ियां, 2000 मीटर से ऊपर लगभग 4000 चोटी हैं। इन सब जगह में पूरी सुरक्षा एवं आसानी से जाया जा सकता है। Jungfrau रेलवे स्टेशन 11332 फीट की ऊँचाई में है जो यूरोप का उच्चतम एवं केदारनाथ की ऊँचाई के बराबर है। यहां 1893 में बर्फीले पहाड़ के अन्दर cog wheel railway tunnel का निर्माण किया गया था जिसे बनाने में 16 साल लगे एवं 105 साल पहले यह जनता को समर्पित हुआ। वर्ष 2012 में मैं स्वीटजरलैंड गया था तो वे लोग इसके100 साल मना रहे थे।

स्वीटजरलैंड मॉर्टिज एवं बर्निना पर्वत श्रंखला है जो केदारनाथ की ऊँचाई के बराबर है। वहां केबिल कार ऑपरेशन को वर्ष 2012 में 50 साल पूरे हो गये थे जबकि केदारनाथ में 14 किलोमीटर की दूरी गौरीकुण्ड से घोड़े, खच्चर, पालकी एवं पैदल पूरी की जाती है।

यह तजुर्बा मैंने आपके समक्ष इसलिये रखा कि हम खुद को स्वीटजरलैंड से तुलना करने से पहले, वहां के बारे में पूरा जान लें।

डॉ राजेंद्र डोभाल
महानिदेशक
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्
उत्तराखडं।

गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली

 गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली        गढ़वाली भाषा का प्रारम्भ कब से हुआ इसके प्रमाण नहीं मिलते हैं। गढ़वाली का बोलचाल या मौखिक रूप तब स...