शनिवार, 2 सितंबर 2017

अन्क्वे अन्क्वे की GARHWALI GEET प्रदीप रावत "खुदेड़"


जरा बाटू हिटण अन्क्वे-अन्क्वे की,
जरा समली चलण अन्क्वे- अन्क्वे की।

मायो बाठू भरि चिपलू होन्दू,
प्रेम की झोळवन बी नि उबांदू।
मठु मठु कैकी सरकुण अन्क्वे-अन्क्वे की।

कडू बोली पर तू भलु बोली,
सभ्यूँ मा मायो भेद न खोली।
खैरी बतेली त बते अन्क्वे-अन्क्वे की।

दौ दान बी दे तू सौ सान बी कै,
पर सरि गगरी रीती कैकी न एै ।
मुठ्यूँ बाँटी तू पर अन्क्वे-अन्क्वे की।

दगडी निभै तिन दूर तक,
दुश्मनी बी निभै मील तक।
अपडों की घात पट लग जांदी,
जरा गाळी देली त दे अन्क्वे-अन्क्वे की।

प्रदीप रावत "खुदेड़"
31/08/2017






कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली

 गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली        गढ़वाली भाषा का प्रारम्भ कब से हुआ इसके प्रमाण नहीं मिलते हैं। गढ़वाली का बोलचाल या मौखिक रूप तब स...