Tuesday, 28 February 2017

गरीब जी तूमूकू सत सत प्रणाम ganesh Gareev Ji



ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद गणेश गरीब ज़िंदाबाद
ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद गणेश क्रांति ज़िंदाबाद,
Shagun uniyal - Video Dailymotion:
Shagun uniyal - Video Dailymotion:
हक़ ये पहाड़ो को हम लेकि रोला
जवानी ये पहाड़ ते हम देखी रोला
ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद गणेश गरीब ज़िंदाबाद
ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद गणेश क्रांति ज़िंदाबाद,

गरीब जी तूमूकू सत सत प्रणाम
चकबंदी की अलख जगाई ग्राम-ग्राम
सच्चा धरती पुत्र छा तुम ये गढ़देश का
सच्चा हितकारी छा तुम ये प्रदेश का
तुम्हारी लगन देखिकी नौजवानू ते प्रेरणा मिलदी
तुम्हारी मातृभक्ति देखि की हममा मातृभक्ति जगदी

चकबंदी आंदोलन ते तुमन जनआंदोलन बणाई
चकबंदी ही लाली ये पहाड़ मा खुशहाली लोगू ते बताई
संघर्ष तुम करा साथ हम द्योला
ऐथर-ऐथर तुम चला पैथर-पैथर हम अौला

चकबंदी की जोत जू तुम्हारी जगाई च
यी जोत का प्रकाश से अंधेरू हम मिटोला
ज़िन्दगी खपे दे तुमन चकबंदी की लड़ै मा
अपड़ा सुप्न्या कुचल दें तुमन ये पहाड़े की भैले मा

हक़ ये पहाड़ो को हम लेकि रोला
जवानी ये पहाड़ ते हम देखी रोला
ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद गणेश गरीब ज़िंदाबाद
ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद गणेश क्रांति ज़िंदाबाद

Saturday, 25 February 2017

तिमला Elephant Fig




वैसे तो उत्तराखण्ड में बहुत सारे बहुमूल्य जंगली फल बहुतायत मात्रा में पाये जाते हैं जिनको स्थानीय लोग, पर्यटक तथा चारावाह बडे चाव से खाते हैं, जो पोष्टिक एवं औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं। इनमें से एक फल तिमला है जिसको हिन्दी में अंजीर तथा अंग्रेजी में Elephant Fig के नाम से जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम फाईकस आरीकुलेटा है तथा मोरेसी कुल का पौधा है। उत्तराखण्ड में तिमला समुद्रतल से 800-2000 मीटर ऊंचाई तक पाया जाता है। वास्तविक रूप में तिमले का फल, फल नहीं बल्कि एक इन्वरटेड फूल है जिसमें ब्लॉज्म दिख नहीं पाता है। इस लिंक पर देखिये गढ़वाली फिल्म भाग-जोग पार्ट 1
उत्तराखण्ड में तिमले का न तो उत्पादन किया जाता है और न ही खेती की जाती है। यह एग्रो फोरेस्ट्री के अन्तर्गत अथवा स्वतः ही खेतो की मेड पर उग जाता है जिसको बड़े चाव से खाया जाता है। इसकी पत्तियां बड़े आकर की होने के कारण पशुचारे के लिये बहुतायत मात्रा में प्रयुक्त किया जाता है।
तिमला न केवल पोष्टिक एवं औषधीय महत्व रखता है अपितु पर्वतीय क्षेत्रों की पारिस्थितिकीय में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। कई सारी पक्षियां तिमले के फल का आहार लेती हैं तथा इसी के तहत बीज को एक जगह से दूसरी जगह फैलाने में सहायक होती हैं एवं कई सारे Wasp प्रजातियां तिमले के परागण में सहायक होती हैं।


सम्पूर्ण विश्व में फाईकस जीनस के अन्तर्गत लगभग 800 प्रजातियां पायी जाती हैं। यह भारत, चीन, नेपाल, म्यांमार, भूटान, दक्षिणी अमेरिका, वियतनाम, इजिप्ट, ब्राजील, अल्जीरिया, टर्की तथा ईरान में पाया जाता है। जीवाश्म विज्ञान के एक अध्ययन के अनुसार यह माना जाता है कि फाईकस करीका अनाजों की खोज से लगभग 11000 वर्ष पूर्व माना जाता है। इस लिंक पर देखिये गढ़वाली फिल्म भाग-जोग पार्ट 2
पारम्परिक रूप से तिमले में कई शारीरिक विकारों को निवारण करने के लिये प्रयोग किया जाता है जैसे अतिसार, घाव भरने, हैजा तथा पीलिया जैसी गंभीर बीमारियों के रोकथाम हेतु। कई अध्ययनों के अनुसार तिमला का फल खाने से कई सारी बीमारियों के निवारण के साथ-साथ आवश्यक पोषकतत्व की भी पूर्ति भी हो जाती है। International Journal of Pharmaceutical Science Review Research के अनुसार तिमला व्यवसायिक रूप से उत्पादित सेब तथा आम से भी बेहतर गुणवत्तायुक्त होता है। वजन बढ़ाने के साथ-साथ इसमें पोटेशियम की बेहतर मात्रा होने के कारण सोडियम के दुष्प्रभाव को कम कर रक्तचाप को भी नियंत्रित करता है। नरेंद्र सिंह नेगी जी का 2017 का पहला गीत
Wealth of India के एक अध्ययन के अनुसार तिमला में प्रोटीन 5.3 प्रतिशत, कार्बोहाईड्रेड 27.09 प्रतिशत, फाईवर 16.96 प्रतिशत, कैल्शियम 1.35, मैग्नीशियम 0.90, पोटेशियम 2.11 तथा फास्फोरस 0.28 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते हैं। इसके साथ-साथ पके हुये तिमले का फल ग्लूकोज, फ्रूकट्रोज तथा सुक्रोज का भी बेहतर स्रोत माना जाता है जिसमें वसा तथा कोलस्ट्रोल नहीं होता है। अन्य फलों की तुलना में फाइवर भी काफी अधिक मात्रा में पाया जाता है तथा ग्लूकोज तो फल के वजन के अनुपात में 50 प्रतिशत तक पाया जाता है जिसकी वजह से कैलोरी भी बेहतर मात्रा में पायी जाती है। तिमला में सभी पोषक तत्वों के साथ-साथ फिनोलिक तत्व भी मौजूद होने के कारण इसमें जीवाणुनाशक गुण भी पाया जाता है तथा एण्टीऑक्सिडेंट प्रचुर मात्रा में होने की वजह से यह शरीर में टॉक्सिक फ्री रेडिकल्स को निष्क्रिय कर देता है तथा फार्मास्यूटिकल, न्यूट्रास्यूटिकल एवं बेकरी उद्योग में कई सारे उत्पादों को बनाने में मुख्य अवयव के रूप में प्रयोग किया जाता है। पोखरा विश्वविद्यालय, नेपाल 2009 के अनुसार तिमला में एण्टीऑक्सिडेंट की मात्रा 84.088 प्रतिशत (0.1 मि0ग्रा0 प्रति मि0ली0) तक पाया जाता है।
इस लिंक पर देखिये उत्तराखंड की संस्कृति की एक अहम् झलक मौरी मेले के माध्यम से

तिमला एक मौसमी फल होने के कारण कई सारे उद्योगों में इसको सुखा कर लम्बे समय तक प्रयोग किया जाता है। वर्तमान में तिमले का उपयोग सब्जी, जैम, जैली तथा फार्मास्यूटिकल, न्यूट्रास्यूटिकल एवं बेकरी उद्योग में बहुतायत मात्रा में उपयोग किया जाता है। चीन में तिमले की ही एक प्रजाति फाईकस करीका औद्योगिक रूप से उगायी जाती है तथा इसका फल बाजार में पिह के नाम से बेचा जाता है। पारम्परिक रूप से चीन में हजारो वर्षो से तिमले का औषधीय रूप में प्रयोग किया जाता है। FAOSTAT, 2013 के अनुसार विश्व भर में 1.1 मिलियन टन तिमले का उत्पादन पाया गया जिसमें सर्वाधिक टर्की 0.3, इजिप्ट 0.15, अल्जीरिया 0.12, मोरेक्को 0.1 तथा ईरान 0.08 मिलियन टन उत्पादन पाया गया।

यदि उत्तराखण्ड में इन पोष्टिक एवं औषधीय गुणों से भरपूर under utilized जंगली फलों हेतु value addition एवं मार्केट नेटवर्क उचित प्रकार से स्थापित कर फार्मास्यूटिकल, न्यूट्रास्यूटिकल एवं बेकरी उद्योग के लिये बाजार उपलब्ध कराया जाय तो ये under utilized जंगली फल प्रदेश की आर्थिकी एवं स्वरोजगार हेतु बेहतर विकल्प बन सकते हैं।

साभार

डा0 राजेन्द्र डोभाल
महानिदेशक
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्
उत्तराखण्ड।

की फेसबुक वाॅल से

Sunday, 19 February 2017

( हींग का बाजार मूल्य 35 हजार रुपये किलो है) हींग उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और नेपाल से सटे यूपी के पहाड़ी इलाके में भी हींग उगाना चाहते हैं।


हर सब्जी में थोड़ी सी मात्रा में पड़ कर ज्यादा असर देने वाली हींग के इस्तेमाल में भारत पहले नंबर है। दुनिया में साल भर में पैदा की जाने वाली हींग का 40 प्रतिशत इस्तेमाल भारत में होता है। मसालों से लेकर दवाइयों में हींग का इस्तेमाल किया जाता है। आप को जान कर हैरानी होगी कि हमारी रसोई की पहचान बन गई हींग का उत्पादन भारत में नहीं होता है। Shagun uniyal - Video Dailymotion:
हींग के आयात पर हर साल करोड़ों रुपए की विदेशी करंसी बर्बाद होती है। अभी तक न ही किसी सरकार ने और न ही किसी कृषि विश्वविद्यालय ने हींग के उत्पादन की शुरुआत करने का सोचा। इस हालत से उबरने और भारत के किसानों को आय का नया विकल्प देने के लिए इंडियन कॉफी बोर्ड के सदस्य डॉ. विक्रम शर्मा ने अपनी ओर से पहल की है। डॉ. शर्मा को इसके लिए न तो सरकार की ओर से कोई मदद मिल रही है और न ही किसी निजी संगठन की ओर से। वह अपने दम पर इस मुहिम में जुटे हैं।
विक्रम ने इस काम को अंजाम देने के लिए हाल में ईरान से हींग के बीज मंगाए हैं। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर के पास पहाड़ी इलाके में हींग की खेती की शुरुआत की जाएगी। इसके साथ ही वह राज्य के सोलन, लाहौल-स्फीति, सिरमौर, कुल्लू, मंडी और चंबा में भी हींग की खेती कराना चाहते हैं। डॉ. शर्मा बताते हैं कि वह उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और नेपाल से सटे यूपी के पहाड़ी इलाके में भी हींग उगाना चाहते हैं।Shagun uniyal - Video Dailymotion:
उनका कहना है कि इस समय शुद्ध हींग का बाजार मूल्य 35 हजार रुपये किलो है। डॉ. शर्मा के मुताबिक, अगर भारत के किसान इसकी खेती करने लगें तो उनका कायाकल्प हो सकता है, क्योंकि देश में हींग की मांग बहुत ज्यादा है और उत्पादन जीरो। देश में जहां आयुर्वेद और अन्य भारतीय चिकित्सा पद्धति की दवाएं बनाने में हींग का काफी इस्तेमाल होता है। 2012 में जम्मू और कश्मीर के डॉ. गुलजार ने अपने राज्य में हींग की खेती की कोशिश की थी, लेकिन वह प्रयास कामयाब नहीं हो पाया।
डॉ. शर्मा कहते हैं कि हींग का पौधा जीरो से 35 डिग्री सेल्सियस का तापमान सहन कर सकता है। इस लिहाज से देश के पहाड़ी राज्यों के कई इलाके हींग की खेती के लिए मुफीद हैं। इन राज्यों में किसान अब भी परंपरागत खेती कर रहे हैं और इसे जंगली और आवारा पशु भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। डॉ. शर्मा के मुताबिक, हींग को जंगली और आवारा पशु नुकसान नहीं पहुंचाते। इससे किसानों को उनकी मेहनत का पूरा मू्ल्य मिल सकेगा। हींग की खेती आसान नहीं है, क्योंकि इसका बीज हासिल करना बहुत मुश्किल काम है। दुनिया में इसकी खेती मुख्य रूप से अफगानिस्तान, ईरान, इराक, तुर्कमेनिस्तान और बलूचिस्तान में होती है। वहां हींग का बीज किसी विदेशी को बेचने पर मौत की सजा तक सुनाई जा सकती है। डॉ. शर्मा कहते हैं कि उन्होंने रिसर्च के लिए बड़ी मुश्किल से इसका बीज ईरान से मंगाया है। इसे ही वह अलग-अलग जगहों पर उगाएंगे।

Tuesday, 14 February 2017

बिसरदि भाषा


बिसरदि भाषा की मि पैलुड़ी बणाणु छौ।
हर्चदा गढौळी सब्दूं तै कबितौ मा सजाणु छौ ।।

भोळ नि पुछ अणवोई पीढ़ी,
हमारि बी रै होलि क्वी भाषा बोली ।
तब ढुढण हमन या भाषा कि कख गै होलि।
तुम परदेसी भै बन्ध भी अपड़ा नौनो तै यी भाषा सिखावा ।
हमारि पूवर्जो की यी पुस्तैनी विरासत तै बिसरण से बचावा ।।
इस लिंक पर देखिये - गढ़वाली सुपरहिट फिल्म भाग-जोग
अपड़ी तरक्की दगड़ी तुम यी भाषै तरक्की बी कैर दैवा।
केवल गीत गाणो मा ना, यी तै बोल चाल मा बी अपनावा।
थड़या चैंफला लगा तुम अखणा-पखणा बी तुम बोला।
माटा मा मिन से पैली तुम अपड़ा आंखा खोला।।
(भाग-जोग ) पार्ट दो को इस लिंक ओपन करके देखिये,
राजेस्थान्यून राजेस्थानी पंजब्यून पंजैबी बोली ।
हम पहाड़यून अपड़ी भाषा बोलण किलै छोड़ी ।
यी भाषा बोलण मा किलै कना छा तुम सरम ।
अरे या त हमारि संस्कृति च यी च हमारू धर्म।।
इस लिंक पर देखिये । एक ऐसा गीत जिस सुनकर आपको अपने खोये हुए लोग की याद आ जाएगी।
रचि दया तुम बी एक साहित्य अपड़ी यी भाषा मा ।
भिगी जावा तुम बी यू गढ़ौळी सब्दू का चैमासा मा ।
ज्वा रीत चनी च यी रीत तै तुम बणेकी राखा ।
अपड़ी भाषा तै तुम कैकी समणी कम नि आंका।।

Monday, 13 February 2017

कलम इतनी कमजोर निकली उनकी,


कलम इतनी कमजोर निकली उनकी,
नेता के गुणगान में लिखने लगी है।
कल तक जो कलम जनतंत्र के लिए बोलती थी,
चुनाव के मौसम में नेता के आँगन में दिखने लगी।
इस कलम में तो स्याई उनकी निकली,
जिनको पांच साल तक कोस रहे थे।
कागज जनतंत्र का था,
भाषा अलंकारों में बोल रहे थे।
बस इस कलम के लिखे शब्द 
दो मास में झुमले कहें जायेंगे
कविता गिरबी रख दी जब,
अच्छे छंद कहाँ रंचे जायेंगे।
फिर क्यों इतनी महंगी कलम से,
हल्का रंग भरने की  क्या जरुरत थी।
कवि तो आईना था समाज का,
खुद को धुंधला करने की क्या जरुरत थी
Shagun uniyal - Video Dailymotion:





Friday, 10 February 2017

भारत मे मडुवें की मुख्य रुप से 2 प्रजातियां पायी जाती है जिसे Eleusine indica जंगली तथा Eleusine coracana प्रमुख रुप से उगाई जाती है,

अनाजों में राजा माना जाने वाला मंडुवा आज से ही नहीं ऋषि मुनियों के काल से ही अपने महत्वपूर्ण गुणों के लिए जाना जाता है। भारत वर्ष में मंडुवे का इतिहास 3000 ई0पूर्व से है। पाश्चात्य की भेंट चढनें वाले इस अनाज को सिर्फ अनाज ही नही अनाज औषधि भी कहा जा सकता है।
इन्ही अनाज औषधीय गुणों के कारणः वापस आधुनिक युग में इसे पुनः राष्ट्रीय एंव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थान मिलने लगा है और विभिन्न अंतरराष्ट्रीय journals तथा मैग्जीन्स इसे आज पावर हाउस नाम से भी वैज्ञानिक तथा शोध जगत में स्थान दे रहे है। इसका वैज्ञानिक नाम इल्यूसीन कोराकाना जो कि पोएसी कुल का पौधा है। इसे देश दुनिया में विभिन्न नामों से जाना जाता है। जैसे कि अंग्रजी में प्रसिद्व नाम फिंगर मिलेट, कोदा, मंडुवा, रागी, मारवा, मंडल नाचनी, मांडिया, नागली आदि।
भारत मे मडुवें की मुख्य रुप से 2 प्रजातियां पायी जाती है जिसे Eleusine indica जंगली तथा Eleusine coracana प्रमुख रुप से उगाई जाती है, जो कि सामान्यतः 2,300 मीटर (समुद्र तल से) की ऊंचाई तक उगाया जाता है। मंडवें की खेती बहुत ही आसानी से कम लागत, बिना किसी भारीभरकम तकनीकी के ही सामान्य जलवायु तथा मिटटी में आसानी से उग जाती है।
मडुवा C4 कैटेगरी का पौधा होने के कारण इसमें बहुत ही आसानी से प्रकाश संश्लेषण हो जाता है तथा दिनरात प्रकाष संश्लेषण कर सकता है। जिसके कारण इसमे चार कार्बन कमपाउड बनने की वजह से ही मंडुवे का पौधा किसी भी विषम परिस्थिति में उत्पादन देने की क्षमता रखता है और ईसी गुण के कारण इसे Climate Smart Crop का भी नाम भी दिया गया है।
कई वैज्ञानिक अध्ययनो के अनुसार यह माना गया है की मडुवा में गहरी जडों की वजह से सुखा सहने करने की क्षमता तथा विपरीत वातावरण जहां वर्षा 300mm से भी कम पाई जाती है। वस्तुतः सभी Millets में Seed coat, embryo तथा Endosperm आटे के मुख्य अवयव होते है। जहां तक मडुवा का वैज्ञानिक विश्लेषण है कि मडुवे के Multilayered seed coat (5 layers) पाया जाता है जो इसे अन्य Millet से Dietary Fiber की तुलना में सर्वश्रेश्ठ बनाता है। FAO के 1995 के अध्ययन के अनुसार मंडुवे में Starch Granules का आकार भी बडा (3से 21µm) पाया जाता है जो इसे Enzymatic digestion के लिए बेहतर बनाता है।
यद्यपि मंडुवे की उत्पति इथूपिया हॉलैंड से माना जाता है लेकिन भारत विश्व का सबसे ज्यादा मडुवा उत्पादक देश है, जो विश्व मे 40 प्रतिशत का योगदान रखता है तथा विश्व का 25प्रतिशत सर्वाधिक क्षेत्रफल भारत में पाया जाता है। भारत के अलावा मंडवे की खेती प्रतिशतमे अफ्रीका से जापान और ऑस्ट्रेलिया तक की जाती है। दुनिया में लगभग 2.5 मिलियन टन मंडुवे का उत्पादन किया जाता है। भारत में मुख्य फसलों मे शामिल मंडुवे की खेती लगभग 2.0 मिलियन हेक्टेयर पर की जाती है जिसमे औसतन 2.15 मिलियन टन मंडुवे का उत्पादन होता है जो कि दुनिया के कुल उत्पादन का लगभग 40 से 50 प्रतिशत है।
पोषक तत्वों से भरपूर मंडुवे मे औसतन 329 किलो0 कैलोरी, 7.3 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम फैट, 72.0 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 3.6 ग्राम फाइबर, 104 मि0ग्राम आयोडीन, 42 माइक्रो ग्राम कुल कैरोटीन पाया जाता है। इसके अलावा यह प्राकृतिक मिनरल का भी अच्छा स्रोत है।
इसमें कैल्शियम 344Mg तथा फासफोरस 283 Mg प्रति 100 ग्राम में पाया जाता है। मंडंवे में Ca की मात्रा चावल और मक्की की अपेक्षा 40 गुना तथा गेहु के अपेक्षा 10 गुना ज्यादा है। जिसकी वजह से यह हडिडयों को मजबूत करने में उपयोगी है। प्रोटीन , एमिनो एसिड, कार्बोहाइड्रेट तथा फीनोलिक्स की अच्छी मात्रा होने के कारण इसका उपयोग वजन करने से पाचन शक्ति बढाने में तथा एंटी एजिंग में भी किया जाता है। मंडुवे का कम ग्लाइसिमिक इंडेक्स तथा ग्लूटोन के कारण टाइप-2 डायविटीज में भी अच्छा उपयोग माना जाता है जिससे कि यह रक्त में शुगर की मात्रा नही बढने देता है।
अत्यधिक न्यूट्रेटिव गुण होने के कारण मंडवे की डिंमाड विश्वस्तर पर लगातार बढती जा रही है जैसे कि आज यू0एस0ए0, कनाडा, यू0के०, नॉर्वे, ऑस्ट्रेलिया, ओमान] कुवैत तथा जापान में इसकी बहुत डिमांड है। भारत के कुल निर्यात वर्ष 2004-2005 के आकडों के अनुसार 58 प्रतिशत उत्पादन सिर्फ कर्नाटक में होता है। कर्नाटक मे लगभग 1,733 हजार टन जबकि उत्तराखण्ड में 190 हजार टन उत्पादन हुआ था जबकि 2008-2009 में भारत के कुल 1477 किलोग्राम हैक्टेयर औसत उत्पादन रहा। अनाज के साथ-साथ मडवे को पशुओ के चारे के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता हैं जो कि लगभग 3 से 9 टन/हैक्टेयर की दर से मिल जाता है।  इस लिंक पर देखिये । एक ऐसा गीत जिस सुनकर आपको अपने खोये हुए लोग की याद आ जाएगी।
वर्ष 2004 में मंडुवे के बिस्किट बनाने तथा विधि को पेटेंट कराया गया था तथा 2011 में मंडुवे के रेडीमेड फूड प्रोडक्टस बनाने कि लिए पेटेन्ट किया गया था। दुनिया भर में मंडुवे का उपयोग मुख्य रूप से न्यूट्रेटिव डाइट प्रोडक्ट्स के लिए किया जाता है। एशिया तथा अफ़्रीकी देशो में मंडुवे को मुख्य भोजन के रूप में खूब इस्तेमाल किया जाता है जबकि अन्य विकिसत देशो में भी इसकी मुख्य न्यूट्रेटिभ गुणों के कारण अच्छी डिमांड है और खूब सारे फूड प्रोडक्टस जैसें कि न्यूडलस, बिस्किट्स, ब्रेड, पास्ता आदि मे मुख्य अवयव के रूप मे उपयोग किया जाता है। जापान द्वारा उत्तराखण्ड से अच्छी मात्रा में मंडवे का आयात किया जाता है।
इण्डिया मार्ट में मडुवा 30 से 40 रू0 प्रति कि0ग्राम की दर से बिक रहा है। 26 अगस्त 2013 के द टाइम्स ऑफ इण्डिया के अनुसार इण्डिया की सबसे सस्ती फसल (मडुवा) इसके न्यूट्रिशनल गुणों के कारण अमेरिका में सबसे महंगी है। मंडुवा अमेरिका मे भारत से 500 गुना मंहगा बिकता है। यू0एस0ए0 मे इसकी कीमत लगभग 10US डॉलर प्रति किलोग्राम है जो कि यहां 630 रू0 के बराबर है। जैविक मडुवे का आटा बाजार में 150 किलोग्राम तक बेचा जाता है। भारत से कई देशो -अमेरीका, कनाडा , नार्वे, ऑस्ट्रेलिया, कुवैत, ओमान को मंडुवा निर्यात किया गया। केन्या में भी बाजरा तथा मक्का की अपेक्षा मंडुवे की कीमत लगभग दुगुनी है जबकि यूगाण्डा में कुल फसल उत्पादित क्षेत्रफल के आधें में केवल मंडुवे का ही उत्पादन किया जाता है। जबकि भारत में इसका महत्व निर्यात की बढती मांग को देखते हुए विगत 50 वर्षो से 50 प्रतिशत उत्पादन मे बढोतरी हुयी है जबकि नेपाल में मंडुवा उत्पादित क्षेत्रफल 8 प्रतिषत प्रतिशत की दर से बढ रहा है।  इस लिंक पर देखिये। जगा रे उत्तराखंडवास्यूं जगा रे जाग्रति गीत क्या हलात हो गयी है रमणीय प्रदेश की जरुर सुने।
चूँकि उत्तराखण्ड प्रदेश का अधिकतम खेती योग्य भूमी असिंचित है तथा मडुवा असिंचित देशो मे उगाये जाने के लिये एक उपयुक्त फसल है जिसका राष्ट्रीय एवम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न पोष्टिक उत्पाद बनाने मे प्रयोग किया जाता है। मंडुवा प्रदेश की आर्थिकी का बेहतर स्रोत बन सकता है

डॉ राजेंद्र डोभाल
महानिदेशक
विज्ञान एवम प्रौद्योगिकी परिषद्
उत्तराखंड।

Thursday, 9 February 2017

कौंणी (foxtail millet) डॉ राजेंद्र डोभाल महानिदेशक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् उत्तराखंड।



कौंणी एक under utilized फसल जिसको foxtail millet के नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम setaria italica है तथा posceae परिवार का पौधा है। कौंणी एक प्राचीन फसल है, इसका उत्पादन चीन, भारत, रूस, अफ्रीका तथा अमेरिका में किया जाता है। कौंणी चीन में लगभग 5000 वर्ष पूर्व तथा यूरोप में लगभग 3000 वर्ष पूर्व से चलन में है। कौंणी का चावल एशिया, दक्षिणी पूर्वी यूरोप तथा अफ्रीका में खाया जाता है। विश्वभर में कौंणी की लगभग 100 प्रजातियां पाई जाती हैं। कौंणी की लगभग सभी प्रजातियां अनाज उत्पादन के लिये उगाई जाती हैं केवल setari sphacelata पशुचारे के लिये उगाई जाती हैं।
वैसे तो उत्तराखण्ड में कौंणी की खेती वृहद मात्रा में नहीं की जाती है, केवल कौंणी के कुछ बीजों को मडुवें के साथ मिश्रित फसल के रूप में बहारनाजा पद्धति के तहत उगाया जाता है। पुराने समय में कौंणी के अनाज को पशुओ के लिये पोष्टिक आहार तैयार करने के लिये उगाया जाता था परन्तु वर्तमान में एक खेत में केवल कौंणी के 8-10 पौधे ही दिखाई देते हैं जो कि बीजों को बचाने के लिये (Germplasm saving) के लिये हैं। दक्षिणी भारत तथा छत्तीसगढ़ के जन जातीय क्षेत्रों में कौंणी प्रमुख रूप से उगाया तथा खाया जाता है। छत्तीसगढ़ के जनजातीय क्षेत्रों में कौंणी का उपयोग औषधि के रूप में अतिसार, हड्डियों की कमजोरी एवं सूजन आदि के उपचार के लिये भी किया जाता है। प्राचीन समय से ही कौंणी को कई क्षेत्रो में खेतों की मेड पर भी उगाया जाता है क्योंकि कौंणी में मिट्टी को बांधने की अदभुत क्षमता होती है तथा इसी वजह से FAO 2011 में कौंणी को “Forest reclamation approach” के लिये संस्तुत किया गया था।
जहां तक कौंणी की पोष्टिक गुणवत्ता की बात की जाय तो यह अन्य millets की तरह ही पोष्टिक तथा मिनरल्स से भरपूर होने के साथ-साथ वीटा कैरोटीन का भी प्रमुख स्रोत है। कौंणी में Alkaloids, phenolics, flavonoids तथा tannins के अलावा starch 57.57 mg/gm, carbohydrates 67.68 mg/gm, protein 13.81%, fat 4.0%, fiber 35.2%, calcium 3.0 Mg/gm, phosphorus 3.0 mg/gm, iron 2.8 mg/gm पाया जाता है। इन सब पोष्टिक गुणवत्ता के साथ-साथ कौंणी का अनाज low glycimic भी होता है। यदि गेहूं के आटे से कौंणी की तुलना की जाय तो कौंणी की GI value 50.8 पाई जाती है जबकि गेंहू में 68 तक पाई जाती है। कौंणी में 55% प्राकृतिक insoluble fiber पाया जाता है जो कि अन्य millet की तुलना में काफी अधिक है। यह माना जाता है कि कौंणी को खाने से काफी सारी chronic बीमारियों का निवारण हो जाता है।
कौंणी के साथ-साथ अन्य millets की पौष्टिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तंजानिया में एड्स रोगियों के बेहतर स्वास्थ्य तथा औषधियों के कारगर प्रभाव के लिये millet से निर्मित भोजन दिया जाता है। श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार कौंणी खून में ग्लूकोज की मात्रा 70 प्रतिशत तक कम कर देता है तथा लाभदायक वसा को बढ़ाने में सहायक होता है। कौंणी के बीजों में 9 प्रतिशत तक तेल की मात्रा भी पाई जाती है जिसकी वजह से विश्व के कई देशो में कौंणी से तेल का उत्पादन भी किया जाता है। FAO 1970 की रिपोर्ट तथा अन्य कई वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार कौंणी वसा, फाइवर, कार्बोहाईड्रेड के अलावा कुछ अमीनो अम्ल जैसे tryptophan 103 mg, lysine 233 mg, methionine 296 mg, phenylalanine 708 mg, thereonine 328 mg, valine 728 mg & leucine 1764 mg प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते हैं। इस पौष्टिकता के साथ-साथ कौंणी एक non-glutinous होने की वजह से आज विश्वभर में कई खाद्य उद्योगों में एक प्रमुख अवयव है।
कई देशों में कौंणी का आटा पोष्टिक गुणवत्ता की वजह से इसको Bakery industry में बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। कौंणी से निर्मित ब्रेड में प्रोटीन की मात्रा 11.49 की अपेक्षा 12.67, वसा 6.53 की अपेक्षाकृत कम 4.70 तथा कुल मिनरल्स 1.06 की अपेक्षाकृत अधिक 1.43 तक पाये जाते हैं। जबकि पौष्टिकता के साथ-साथ ब्रेड का कलर, स्वाद तथा hardness भी बेहतर पाई जाती हैं। वर्तमान में ब्रेड उद्योग विश्वभर में तेजी से उत्पादन कर रही है। विश्व में 27 लाख टन वार्षिक ब्रेड का उत्पादन किया जाता है। अगर कौंणी के आटे को ब्रेड उद्योग में उपयोग किया जाता है तो न केवल ब्रेड पोष्टिक गुणवत्ता में बेहतर होगी बल्कि इस under utilized फसल जो असिंचित भू-भाग में उत्पादन देने की क्षमता रखती है को बेहतर बाजार उपलब्ध हो जायेगा और समाप्ति की कगार पर पहुंच चुकी कौंणी को पुर्नजीवित कर जीविका उपार्जन हेतु आर्थिकी का स्रोत बन सकती है। चीन में कौंणी से ब्रेड, नूडल्स, चिप्स तथा बेबी फूड बहुतायत उपयोग के साथ-साथ बीयर, एल्कोहल तथा सिरका बनाने में भी प्रयुक्त किया जाता है। कौंणी के अंकुरित बीज चीन में सब्जी के रूप में बडे़ चाव के साथ खाये जाते हैं। यूरोप तथा अमेरिका में कौंणी को मुख्यतः poultry feed के रूप में उपयोग किया जाता है। चीन, अमेरिका एवं यूरोप में कौंणी को पशुचारे के रूप में भी बहुतायत में प्रयोग किया जाता है।
वर्ष 1990 तक विश्वभर में कौंणी का 5 मिलयन टन उत्पादन किया जाता था जो कि कुल millet उत्पादन का 18 प्रतिशत योगदान रखता है। विश्वभर में चीन कौंणी उत्पादन में प्रमुख स्थान रखता है जबकि अफ्रीका में अन्य millet की तुलना में कौंणी का उत्पादन कम पाया जाता है। असिंचित दशा में कौंणी का लगभग 800-900 किग्रा/हे0 तक उत्पादन लिया जा सकता है जिसमें पशुचारे हेतु लगभग 2500 किग्रा/हे0 भूसा भी उपलब्ध हो जाता है। चीन में कुछ बेहतर प्रजातियों से 1800 किग्रा/हे0 तक उत्पादन तक लिया जाता है।
कौंणी को विश्व बाजार में राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय कम्पनियों के द्वारा 40 से 90 रूपये प्रति किलोग्राम तक बेचा जा रहा है। भारत तथा उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कौंणी पौष्टिकता के साथ-साथ सूखा सहन करने की अदभुत क्षमता होती है। उत्तराखण्ड जहां अधिकतम भू-भाग असिंचित होने की वजह से millet उत्पादन के लिये उपयुक्त है, कौंणी को उच्च गुणवत्तायुक्त वैज्ञानिक तकनीकी से उत्पादित किया जाय तथा केवल पशु आहार, कुकुट आहार, बेबी फूड के लिये भी किया जाय तो यह millet उत्पादकों के लिये सुलभ बाजार तथा आर्थिकी का प्रमुख साधन बन सकता है।

डॉ राजेंद्र डोभाल
महानिदेशक
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्
उत्तराखंड।

Sunday, 5 February 2017

भीड़ में खोने लगे है लोग गाँव के


फिर गाँव के लोग भीड़ में खोने लगे है,
पांच साल के लिए क्या काँटे बोने लगे है।
क्या जात-पात और बोतल में बिकने लगे है,
उत्तराखंड का भविष्य अंधेरो से लिखने लगे है।
इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग
किसी ने पूछा है उनसे अभी तक क्या आपने किया है,
बीते पांच सालों में उत्तराखंड को बस पलायन दिया है।
जो विपक्ष में थे क्यों नहीं उठाई उन्होंने विधान सभा में आवाज,
किस मुहँ से आ रहे है ये नेता जनता के बीच में आज।
इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग पार्ट -2
कोसते थे आज तक वह जिन दलों को,
आज फिर बचाने चल दिए उनके किलों को।
न जाने किस मज़बूरी में उनका झंडा उठाने लगे,
न जाने क्यों उनके लिए फिर हवा बनाने लगे।
नरेन्द्र सिंह नेगी जी का 2017 का नया गीत
सवाल करो, जवाब लो, कुछ तो बोलो,
प्रपंच के तराजू में अपने को अब मत तोलो।
नहीं उतरता खरा तो ख़ारिज कर दो,
जड़ो में उनके नोटा का मठा भर दो।



Thursday, 2 February 2017

क्या आप इस बात से सहमत है कि आज के उत्तराखंड के पर्वतीय जिलो को हिमाचल के साथ मिलाकर एक बड़ा पर्वतीय राज्य बनाया जाये।



उत्तराखंड की बदकिस्मती थी की 20001 में राज्य तो मिल गया पर हिमाचल की तरह डॉ यशवंत परमार जैसा महान तपस्वी राजनेता और दूरदृष्टि मुख्यमंत्री नही मिला।
हिमाचल को पूर्ण राज्य बनाने की कशमकश के बीच डॉ परमार ने दिल्ली और लखनऊ में इस बात की लोबिंग की थी कि आज के उत्तराखंड के पर्वतीय जिलो को हिमाचल के साथ मिलाकर एक बड़ा पर्वतीय राज्य बनाया जाये। लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन ताकतवार नेताओं के आगे उनकी कुछ नहीं चली।  काश तब ऐसा हो पाता तो उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भी सुख समृद्धी की रौनक मिलती

उमाकांत लखेड़ा- नवोदय टाइम्स से


गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली

 गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली        गढ़वाली भाषा का प्रारम्भ कब से हुआ इसके प्रमाण नहीं मिलते हैं। गढ़वाली का बोलचाल या मौखिक रूप तब स...