Wednesday 25 January 2017

ऐंच आगासू मा उड़द देखि मिन उत्तराखंड कु भाबिष्य भैजी l


ऐंच आगासू मा उड़द देखि मिन उत्तराखंड कु भाबिष्य भैजी
निस सड़क्यू मा उंद बोगद देखि मिन उत्तराखंड कू भैजी
आपदा मा मोरद देखि मिन
डेनिस मा जीतम फुक्द देखि
इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग
सी गंगो कू बालू बेच्णा छा।
जमिनू कू सौदा करणा छा
देरादून मा भांडा मज्यंद देखि उत्तराखंड कू भाबिष्य भैजी

सि बिदेश घुमणा छा
पार्टी बदलणा छा
दल बदलूं कु झंडा उठान्द देखि मिन उत्तराखंड कू भाबिष्य भैजी
इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग
सि झूठा घोषणा कना छा
पिछला साले बात बोना छा
स्यूं कू ते कुर्सी बिछान्द देखि मिन उत्तराखंड कू भाबिष्य भैजी




Sunday 22 January 2017

आज की मेहमान पोस्ट में पढ़िए "दैनिक उत्तराखंड" के माध्यम से इस सब्जी के बारे में ये बातें जानकर आप भी हो जाएंगे हैरान



सब्जियां तो बहुत खायी है लेकिन पहाड़ी सब्जी वो भी लिगड़ा, मजा ही कुछ और है। पुरातन काल से ही भारत के ऋषि मुनियों एवं पूर्वजो के द्वारा पोष्टिक तथा विभिन्न बिमारियों के इलाज के लिये विभिन्न प्रकार की जंगली पौधों का उपयोग किया जाता रहा है। वैसे तो बहुत सी पहाड़ी सब्जियां खायी है जिसमें से लिगड़ा भी एक है, कुछ लोगो ने इस सब्जी का आनन्द जरूर लिया होगा। यह जंगलो में स्वतः ही उगने वाली फर्न है, जिसका उपयोग हम ज्यादा से ज्यादा सब्जी बनाने तक ही कर पाते हैं। जबकि विश्व में कई देशो में लिगड़ा की खेती वैज्ञानिक एवं व्यवसायिक रूप से भी की जाती है।

Monday 16 January 2017



काणी ब्वे कू सबसे छोटू पिल्ला झबरू छौ तैकू नौ।
न स्यू गोणी बगान्दू छो, न स्याल हटगांदू छो,
लेंडी बोल्दू छौ तैकू तै सरू गौ।

कबी कैन तैते नि पुचकारी।
बड़ा त छोड़ा छोटोन बी स्यू दुत्कारी।
आत्म सम्मान ते टेश पहुंची तै का वे दिन,
जैदीन बोली लोखून तू कुत्ता का नौ पर दाग छै।
निढाल व्हेगी स्यू तै दिन,
पर तै का मन मा बी जगणी आत्म सम्मान कि आग छै।
इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग पार्ट -1
बैठी कि कोलणा पैथर कन बैठी स्यू चिंतन मन-मन ।
करलू मी बी इनू काम याद करला लोग जन।
समय-समय कू फेर च वक्त-वक्त कि बात।
सोमवार कू ढलदू दिन छो मंगल की घनघोर रात।
एक चोर, चोरी कनू कू गौंमा आयी।
जनि वेन मोर संगारे तरफ हाथ बढ़ाई।
तनि झबरू की नींद खुली वू भौंकण बैठी।
सूणी की झबरू अवाज़ चोर अटगण बैठी।

भौ-भौ कै की सारा गौंमा व्हेगी हल्ला।
किले भौंकी होलू झबरू आज देखि औला चला।
चोर कुत्ता का ऐथर लोग झबरू का पैथर।
भागम भागी हटगम हटगी,
लटगम लटगी भटगम भटगमी।
इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग पार्ट -2
मिनट दसेक मा झबरून चोर ते काट खायी।
चार दिन बाद विचरू चोर स्वर्ग सिधार ग्याई।
सरा गौं पट्टी मा व्हेगी हाम।
तै दिन बैठी की झबरू की व्हेगी बडू नाम।
तै दिन बटी चोरू की हिम्मत नी वाई
तै गौं मा कभी चोरी कनू कू नी आयी
लोखून घारूमा तल्ला लगान छोड़ देन
वारसू बटी लगया तल्ला तोड़ देन
इस लिंक पर सुनिए -किस दौर से गुजर रहा है अपना उत्तराखंड सुनिए उत्तराखंडी जाग्रति गीत
झबरू का भरोसा छोड़ दे लोखून घर वार।
तै दिन बटी मान सम्मान मिन बैठी झबरू तै हर द्वार।
वक्त-वक्त की बात च समय-समय कू फेर
चुनाव कू चलणू प्रचार देर सवेर।
जनि प्रचार कू थमी शोर।
नेता जी का मन बैठी डौर,
न हो जो मी हौर।
नेता जी न एक तरकीब सोची।
रूपयों कू थौला लेकि गौमा पहोंची।
पैंसा देकी मि जनता का वोट लेन्दो।
पैंसों कि दगड़ा दारू भी देन्दो।
इस लिंक पर देखिये एक सुंदर गढ़वाली खुदेड गीत। आपको अपनों की याद आ जाएगी
झुपक-झुपक नेता गौमा आयी।
जनि वेन मोर संगार कि तरफ हाथ बढ़ायी।
झबरू नेता जी देखि की भौ-भौ भौंकी।
नेता झबरू देखि की चौंकी।

नेता ऐथर-ऐथर झबरू पैथर-पैथर,
सरा गौमा हल्ला व्हेगी भारी।
लोखून लाठा थमवा हाथ मा धारी।
नेता, झबरू, ऐथर-ऐथर लोग पैथर-पैथर।
नेता अगने-अगने झबरू, लोग पिछने- पिछने।
सुनिए विमल सजवाण की आवाज में गढ़वाली गीत फ्योलोड़ी सी हैन्सदी
अटगद-अटगद नेता जी की फूल गई सांस।
अब त नेता जी न छोड़ दे बचणे आस।
नेता जी तै झबरू दे काट।
नेता ते व्हेगी झटपटाट।
चार दिन बाद अखबार मा खबर छपी खास।
नेता जी ते झबरून काटी छौ,
तै झबरू कू व्हेगी स्वर्गवास।

बिचारू झबरून नेता जी कू जहर नि सै साकी।
काटी त झबरून छौ, पर स्वी ज़िंदा नि रै साकी।
जनता खरबूजा बणी च नेता बणगी छुरी।
नेता ते हम काटा चा नेता हमते काट,
किसमत बिचरी जनते कि होंदी बुरी।
xx

Thursday 12 January 2017

चुराच के बकरे के साथ जौंनसार बावर की 39 ख़तों में मरोज शुरू। मुजरा (मुंजरा और छुमका की रहेगी धूम। by मानोज इष्टवाल


जहां पूरे देश भर में हिन्दू धर्म अनुयायी माघ माह शुरू होते ही मांस भक्षण त्याग देते हैं वहीं उत्तारखण्ड के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर व उसके दूसरे छोर पर तमसा नदी पार हिमाचल क्षेत्र व यमुना नदी पार रवाई जौनपुर में माह हजारों की संख्या में बकरे काटे जाते हैं और शुरू हो जाता है एक अदभुत उत्सव ज़िसे मरोज कहते हैं !इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग
आम तौर पर लोगों की जनधारंणा रही है कि इन बकरों के खून से ही मां काली का खप्पर भरा और मां काली की रक्त पिपासा शांतch हुई वहीं कुछ अन्य इसे ऐडी आँछरी डाग-ढ़गुआ व पिचास -पिचासनियों को चढ़ाया गया खून मानते हैं वहीं पत्रकार राजगुरू इसे महासू देवता के सेनापति कयलू देवता से जोड़कर देखते हैं . उनके अनुसार कयलू देवता ने ही किर्मिरी दानव का वध किया !
बहरहाल एक अन्य और सटीक तथ्य यह भी है कि महासू के गण किसराट के मन्दिर में 26 गते पौष बकरा चढ़ाने के बाद जो भी मरोज का बकरा काटा जाता है उसके मांस पर साल भर रखने के बाद भी बदबू नहीं आती और ना ही कीड़े पड़ते हैं .इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग
किसराट का मन्दिर हनोल में महासू मन्दिर के समीप ही तमसा य़ानी टोंस नदी के किनारे है जहां प्रति बर्ष 26 गते पौष चुराच का बकरा काटा जाता है ज़िसके अंग का एक टुकडा किर्मिरी दानव के नाम का नदी में फैंका जाता है तदोपरांत जौनसार बावर की 39 खत्तों के प्रत्येक गाँव के प्रत्येक परिवार में बकरा बकरे काटे जाते हैं जिनकी संख्या हजारों में पहुँचती है इस लिंक पर सुनिए नरेन्द्र सिंह नेगी जी का नया गीत
लोक मान्यता है कि माघ तक जौनसार बावर बर्फ से लकदक हो जाता था तब लोगों के पास सिर्फ बकरे का मांस और उसके पकवान व सूर घेंघटी पाकोई का ही सहारा होता था . ध्याणोज़ पर बेटीयां ससुराल से मायके लौटती थी जहां उनकी खूब खातिर दारी की जाती थी.सुनिए विमल सजवाण की आवाज में गढ़वाली गीत फ्योलोड़ी सी हैन्सदी
वही बर्फवारी में सारा काम चौपट होता था ऐसे में एक दूसरे के पौउने /मेहमान नवाजी होती थी और ठंड़ी रातों को गुजारने के लिये भितरा के गीत व भितरा के नाच चलते है ज़िन्हे जहां जौनसार में छुमका कहा जाता है वहीं बावर में ये मुजरा (मुंजरा) के नाम से प्रसिद्ह हैं जो पूरे महीने भर यूँही चलता रहता है सच कहूँ तो ज़िसने जौनसार बावर की लोक संस्कृति करीब से नहीं देखी तो फिर क्या देखा ! बस आवश्तकता है तो इसे बचाये रखने की क्योंकि यहां भी बदलते मिजाज ने असर दिखाना शुरू कर दिया है लोग बकरे तो काट रहे हैं लेकिन मरोज के लोक उत्सव गायब होने लगे हैं

Wednesday 11 January 2017

मै जीना चाहता हूँ उन पलो को,


मै जीना चाहता हूँ उन पलो को,
जो मैंने अपने गाँव अपनी पट्टी में बिताये थे।
मै लिखना चाहता हूँ उस पाटी पर,
क, ख, ग, जो मेरे दगड्यो ने मिटाये थे ।।

मै टाँगना चाहता हूँ फिर उस खूँटी पर कपड़े,
जहाँ मै अपनी फटी ड्रेस टंगा करता था।
मै फिर धूल फाँकना चाहता हूँ उन रास्तों की,
जहाँ मै भागा करता था।
याद है मुझे वह जंगल में पेड़ की टूक पर चड़कर,
हिमालय को टक-ना।
दूसरे के बैलो के गले से घंटियाँ चुराकर छुपाकर रखना ।
गाय और बैल की पुंछ पकड़ कर,
हम घर की तरफ दौड़ा करते थे ।
पन्देरे में रखे दूसरे के कनस्तर को,
पत्थर से फोड़ा करते थे ।

शनि और इतवार की रात को फिल्म देखते हुए भट्ट खाना ।
झट बिजली गयी, कि दूसरो पर लात घुसे चलाना ।
रुडियों में माँ हमें सुलाती थी,
पर हम माँ को ही सुलाया करते थे ।
घर से निकलकर नंघे बदन तालाब,बांध में, छलांग लगया करते थे ।
गोर्या छोरो के साथ कभी-कभी ताश खेलना सीखा करते थे ।
स्कूल से चौक चुराकर रास्ते में प्रेमियो का नाम लिखा करते थे।
मै जीना चाहता हूँ उन पलो को,
जो मैंने अपने गाँव अपनी पट्टी में बिताये थे।।

हाँ! मै उन गलत किस्सों को नहीं दोहराना चाहता,
जो मैंने बचपन में किये थे।
पापा की बीड़ी के टुडे उठाकर छुप-छुपकर,
कोने में जाकर पीये थे ।
अपने खुद के नियम कानून होते थे, खुद होते थे खेल ।
कभी दोस्तों से लड़ाई-झगड़ा होता,कभी होता था मेल।
मै जीना चाहता हूँ उन पलो को,
जो मैंने अपने गाँव अपनी पट्टी में बिताये थे ।

मै चाहता हूँ बचपन ये के सुंदर दिन,
अपने बच्चो को भी जीने दूँ ।
बस्ते का बोझ उतरकार उनके कन्धे से,
उन्हें खुली हवा में साँस लेने दूँ ।
मै जीना चाहता हूँ उन पलो को,
जो मैंने अपने गाँव अपनी पट्टी में बिताये थे ।
मै लिखना चाहता हूँ उस पाटी पर,
क, ख, ग, जो मेरे दगड्यो ने मिटाये थे ।

प्रदीप रावत "खुदेड़"
 

Friday 6 January 2017

सहेली और पढ़ेळी पहाड़ो में सामूहिक रूप से कार्य करने की प्रथा- Pardeep Singh Rawat Khuded


आज के समय में जब परिवार संघठित नहीं रह पा रहे है तो सहेलियाँ कब तक समाज को एक रख सकती थी।
जैसे की नाम से पता चलता है की सहेली का अर्थ साथी हम राही दोस्त से है। पहाड़ में आज से कुछ साल पहले लोग अपने कार्य कराने के लिए सहेलिया लगाया करते थे। अगर किसी का माकन बन रहा है। इस लिंक पर देखिये सुपर हिट गढ़वाली फिल्म भाग-जोग उस वर्ग से तालुक रखने वाले सारे परिवार उनकी मदद के लिए अपना हाथ बंटाने के लिए पत्थर सारते थे। या फिर कोई  परिवार अकेला है तो उसके खेतो में जाकर गुढ़ाई, निराई, कटाई, करते थे। इसके बदले वह परिवार अपने धौडे को जिसे धड़ा  भी का जाता है। एक निश्चित राशि जमा करते थे। पहले ये राशि पचास पैंसे एक रूपए हुआ करती थी। अब बढ़ गयी है। यह प्रथा अब काफी हद तक खत्म सी हो गयी है । हालाँकि हमारे गाँव में अभी भी कुछ परिवार सहेलियों लगाते है। सहेलियों में पुरुष भी शामिल हो सकते थे जिस परिवार में महिला नहीं होती थी
9 साल की प्यारी सी लड़की शगुन उनियाल की सुन्दर आवाज में सुनिये गढ़वाली गीत
उस परिवार के पुरुष इस कार्य में भाग ले सकते थे। सहेलियों के बहुत सारे लाभ है। सामूहिक रूप से कार्य करने से लोगो के काम कब ख़त्म हो जाते थे काम करने वालों को पता ही नहीं चलता था। लोग एक दूसरे के दुःख तकलीफों को समझते थे और उनका निवारण करने की भरपूर कोशिश करते थे। एक साथ कार्य करने से आपसी भाईचारा बना रहता था। खेत में ननद भौजी के बीच में हंसी मजाक का दौर चलता था। एक दूसरे के काम का आंकलन होता था। इससे यह पता लग जाता था कि कौन अच्छा काम करता है और कौन आलसी है।
इस लिंक पर देखिये सुपर हिट गढ़वाली फिल्म भाग-जोग पार्ट -2 नए दोस्त बनते थे। उस दौर में चाय और बंद नास्ते में उपलब्ध कराये जाते थे। जो बड़े स्वादिष्ट लगते थे। किस परिवार ने कितनी सहेलियाँ लगाई इसका पूरा रिकार्ड रखा
जाता था। जो पैंसे इन सहेलिओं से एकत्र होते थे उससे धौडे में शादी विवाह के लिए बर्तन, चांदनी, दरी, ढोल-दमाऊ, आदि, खरीदते थे। खासकर हमारे जैसे बड़े गाँव में जहाँ एक दिन में दो या तीन शादियाँ होती है जिसमें कुछ बर्तनों से काम चलाना मुशकिल होता है। इसलिए प्रत्येक धौडे के अपना सामान होता था। इसके बाद  सामान कम पड़े तो तब दूसरे धौडे से लेकर आते थे। अब जब लोग पूरा टेंट हॉउस बुक करने लग गए है तो धौडे का सामान ओबरे ऊँग रहा है। वही लोगों ने खेती करना लगभग छोड दिया है तो सहेलियाँ भी अपना अस्तित्व खो रही है। हाँ आज के समय में सहेलियाँ केवल माकन के पत्थर, सडक से रेत, ईंट लाने के लिए लगायी जाती है वह भी वह परिवार लगता है जो आर्थिक रूप से थोडा कमजोर होता है वरना लोग अब घोड़ों और नेपाली मजदूरों से ये सारा काम करते है।
पढेळ
 से बहार के परिवार शामिल हो सकते थे। तीन या चार घनिष्ट सहेलियाँ किसी एक काम को सामूहिक रूप से करती थी। जैसे की आज से चार दिन तक हमारे खेत में कोदे की गुढाई करनी है  और  उसके चार दिन बाद दूसरे के खेत में। इससे यह लाभ होता था कि अगर मेरे खेत अभी निराई, गुढाई, कटाई, के लिए तैयार नहीं है और मै खाली हूँ तो मै दूसरे की मदद के लिए जा सकता या सकती हूँ जिसका खेत तैयार हो गया है। जब मेरा खेत तैयार हो जायेगा तब वह मेरी मदद के लिए आ जायेंगे। पढ़ेळी से भी काम हल्का हो जाता है। पढ़ेळी ज्यादातर बहुत घनिष्ट सहेलियों मे लगती है। जिनके विचार आपस में बहुत मिलते है। पर पढ़ळी टी बी पर नाटक देखने के लिए लगती है।

Wednesday 4 January 2017

सैद चुनाव ऐगी । Garhwali Poem By Pardeep rawat Khuded


                               घटा छंटेगी,
                               फ़िज़ा बदलेगी ।
                               सैद चुनाव ऐगी ।

                               कुकर बाघ बिरोवू,
                               बांदर नेवला गुरोवू ।
                               किले आज एक व्हे होला,
                               संसद मा भ्याळी  तक,
                               लगांदा छ जू आरोप ।
                               आज स्यू नेक किलै व्हे होला,
                               सैद चुनाव ऐगी ।

                              गरीबा घार मा आज दिन मा,
                              किलै द्वी जग्यूचा ।
                              सेठा दुर्पला मा आज,
                              किलै झंडा टंग्यूचा ।
                              सैद चुनाव ऐगी ।

                              भ्याळी तक गौमा,
                              बेरोजगारू की भरमार छै।
                              जनता भी पांच सालो ,
                              हिसाब ले की तैयार छै।
                              पर आज सरू गौ खाली,
                              सैद चुनाव ऐगी ।

                              गौ- गौमा किलै फूट व्हे होलि,
                              भै-भै मा किलै टूट व्हे होलि।
                              सैद चुनाव ऐगी ।

                             आज स्यू लोवू स्याळ ,
                             मुंगरा किलै नि भूखाणू होलू।
                             आज थानेदार लोखू तै,
                             आँखा किलै नि दिखाणू होलू।
                             सैद चुनाव ऐगी ।

                            किलै आज कल हेलिकॉप्टर
                            उड़णान हवा मा।
                            शेरूदा किलै टैट बण्यु होलू
                            सुबेर बटी पव्वा मा।
                            सैद चुनाव ऐगी ।

                            किलै आजकल क्वी उतारनू पहनू च,
                            सराफत कू नकाब।
                            किलै आजकल वैष्णो ढाबा मा,
                            बिकण बैठी सराब  कबाब।
                            सैद चुनाव ऐगी ।

                           किलै आज दिन रात का पहर,
                           शैद घुमणा छन। (सफ़ेद पोशाक वाले)
                           किलै आज कुछ खास लोग,
                           गुजरों कि गुजरायण सूंघणा छन।
                           सैद चुनाव ऐगी ।

                                         प्रदीप सिंह रावत ''खुदेड़''

गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली

 गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली        गढ़वाली भाषा का प्रारम्भ कब से हुआ इसके प्रमाण नहीं मिलते हैं। गढ़वाली का बोलचाल या मौखिक रूप तब स...