Thursday 12 January 2017

चुराच के बकरे के साथ जौंनसार बावर की 39 ख़तों में मरोज शुरू। मुजरा (मुंजरा और छुमका की रहेगी धूम। by मानोज इष्टवाल


जहां पूरे देश भर में हिन्दू धर्म अनुयायी माघ माह शुरू होते ही मांस भक्षण त्याग देते हैं वहीं उत्तारखण्ड के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर व उसके दूसरे छोर पर तमसा नदी पार हिमाचल क्षेत्र व यमुना नदी पार रवाई जौनपुर में माह हजारों की संख्या में बकरे काटे जाते हैं और शुरू हो जाता है एक अदभुत उत्सव ज़िसे मरोज कहते हैं !इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग
आम तौर पर लोगों की जनधारंणा रही है कि इन बकरों के खून से ही मां काली का खप्पर भरा और मां काली की रक्त पिपासा शांतch हुई वहीं कुछ अन्य इसे ऐडी आँछरी डाग-ढ़गुआ व पिचास -पिचासनियों को चढ़ाया गया खून मानते हैं वहीं पत्रकार राजगुरू इसे महासू देवता के सेनापति कयलू देवता से जोड़कर देखते हैं . उनके अनुसार कयलू देवता ने ही किर्मिरी दानव का वध किया !
बहरहाल एक अन्य और सटीक तथ्य यह भी है कि महासू के गण किसराट के मन्दिर में 26 गते पौष बकरा चढ़ाने के बाद जो भी मरोज का बकरा काटा जाता है उसके मांस पर साल भर रखने के बाद भी बदबू नहीं आती और ना ही कीड़े पड़ते हैं .इस लिंक पर देखिये गढ़वाली सुपर हिट फिल्म भाग-जोग
किसराट का मन्दिर हनोल में महासू मन्दिर के समीप ही तमसा य़ानी टोंस नदी के किनारे है जहां प्रति बर्ष 26 गते पौष चुराच का बकरा काटा जाता है ज़िसके अंग का एक टुकडा किर्मिरी दानव के नाम का नदी में फैंका जाता है तदोपरांत जौनसार बावर की 39 खत्तों के प्रत्येक गाँव के प्रत्येक परिवार में बकरा बकरे काटे जाते हैं जिनकी संख्या हजारों में पहुँचती है इस लिंक पर सुनिए नरेन्द्र सिंह नेगी जी का नया गीत
लोक मान्यता है कि माघ तक जौनसार बावर बर्फ से लकदक हो जाता था तब लोगों के पास सिर्फ बकरे का मांस और उसके पकवान व सूर घेंघटी पाकोई का ही सहारा होता था . ध्याणोज़ पर बेटीयां ससुराल से मायके लौटती थी जहां उनकी खूब खातिर दारी की जाती थी.सुनिए विमल सजवाण की आवाज में गढ़वाली गीत फ्योलोड़ी सी हैन्सदी
वही बर्फवारी में सारा काम चौपट होता था ऐसे में एक दूसरे के पौउने /मेहमान नवाजी होती थी और ठंड़ी रातों को गुजारने के लिये भितरा के गीत व भितरा के नाच चलते है ज़िन्हे जहां जौनसार में छुमका कहा जाता है वहीं बावर में ये मुजरा (मुंजरा) के नाम से प्रसिद्ह हैं जो पूरे महीने भर यूँही चलता रहता है सच कहूँ तो ज़िसने जौनसार बावर की लोक संस्कृति करीब से नहीं देखी तो फिर क्या देखा ! बस आवश्तकता है तो इसे बचाये रखने की क्योंकि यहां भी बदलते मिजाज ने असर दिखाना शुरू कर दिया है लोग बकरे तो काट रहे हैं लेकिन मरोज के लोक उत्सव गायब होने लगे हैं

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