Friday 6 January 2017

सहेली और पढ़ेळी पहाड़ो में सामूहिक रूप से कार्य करने की प्रथा- Pardeep Singh Rawat Khuded


आज के समय में जब परिवार संघठित नहीं रह पा रहे है तो सहेलियाँ कब तक समाज को एक रख सकती थी।
जैसे की नाम से पता चलता है की सहेली का अर्थ साथी हम राही दोस्त से है। पहाड़ में आज से कुछ साल पहले लोग अपने कार्य कराने के लिए सहेलिया लगाया करते थे। अगर किसी का माकन बन रहा है। इस लिंक पर देखिये सुपर हिट गढ़वाली फिल्म भाग-जोग उस वर्ग से तालुक रखने वाले सारे परिवार उनकी मदद के लिए अपना हाथ बंटाने के लिए पत्थर सारते थे। या फिर कोई  परिवार अकेला है तो उसके खेतो में जाकर गुढ़ाई, निराई, कटाई, करते थे। इसके बदले वह परिवार अपने धौडे को जिसे धड़ा  भी का जाता है। एक निश्चित राशि जमा करते थे। पहले ये राशि पचास पैंसे एक रूपए हुआ करती थी। अब बढ़ गयी है। यह प्रथा अब काफी हद तक खत्म सी हो गयी है । हालाँकि हमारे गाँव में अभी भी कुछ परिवार सहेलियों लगाते है। सहेलियों में पुरुष भी शामिल हो सकते थे जिस परिवार में महिला नहीं होती थी
9 साल की प्यारी सी लड़की शगुन उनियाल की सुन्दर आवाज में सुनिये गढ़वाली गीत
उस परिवार के पुरुष इस कार्य में भाग ले सकते थे। सहेलियों के बहुत सारे लाभ है। सामूहिक रूप से कार्य करने से लोगो के काम कब ख़त्म हो जाते थे काम करने वालों को पता ही नहीं चलता था। लोग एक दूसरे के दुःख तकलीफों को समझते थे और उनका निवारण करने की भरपूर कोशिश करते थे। एक साथ कार्य करने से आपसी भाईचारा बना रहता था। खेत में ननद भौजी के बीच में हंसी मजाक का दौर चलता था। एक दूसरे के काम का आंकलन होता था। इससे यह पता लग जाता था कि कौन अच्छा काम करता है और कौन आलसी है।
इस लिंक पर देखिये सुपर हिट गढ़वाली फिल्म भाग-जोग पार्ट -2 नए दोस्त बनते थे। उस दौर में चाय और बंद नास्ते में उपलब्ध कराये जाते थे। जो बड़े स्वादिष्ट लगते थे। किस परिवार ने कितनी सहेलियाँ लगाई इसका पूरा रिकार्ड रखा
जाता था। जो पैंसे इन सहेलिओं से एकत्र होते थे उससे धौडे में शादी विवाह के लिए बर्तन, चांदनी, दरी, ढोल-दमाऊ, आदि, खरीदते थे। खासकर हमारे जैसे बड़े गाँव में जहाँ एक दिन में दो या तीन शादियाँ होती है जिसमें कुछ बर्तनों से काम चलाना मुशकिल होता है। इसलिए प्रत्येक धौडे के अपना सामान होता था। इसके बाद  सामान कम पड़े तो तब दूसरे धौडे से लेकर आते थे। अब जब लोग पूरा टेंट हॉउस बुक करने लग गए है तो धौडे का सामान ओबरे ऊँग रहा है। वही लोगों ने खेती करना लगभग छोड दिया है तो सहेलियाँ भी अपना अस्तित्व खो रही है। हाँ आज के समय में सहेलियाँ केवल माकन के पत्थर, सडक से रेत, ईंट लाने के लिए लगायी जाती है वह भी वह परिवार लगता है जो आर्थिक रूप से थोडा कमजोर होता है वरना लोग अब घोड़ों और नेपाली मजदूरों से ये सारा काम करते है।
पढेळ
 से बहार के परिवार शामिल हो सकते थे। तीन या चार घनिष्ट सहेलियाँ किसी एक काम को सामूहिक रूप से करती थी। जैसे की आज से चार दिन तक हमारे खेत में कोदे की गुढाई करनी है  और  उसके चार दिन बाद दूसरे के खेत में। इससे यह लाभ होता था कि अगर मेरे खेत अभी निराई, गुढाई, कटाई, के लिए तैयार नहीं है और मै खाली हूँ तो मै दूसरे की मदद के लिए जा सकता या सकती हूँ जिसका खेत तैयार हो गया है। जब मेरा खेत तैयार हो जायेगा तब वह मेरी मदद के लिए आ जायेंगे। पढ़ेळी से भी काम हल्का हो जाता है। पढ़ेळी ज्यादातर बहुत घनिष्ट सहेलियों मे लगती है। जिनके विचार आपस में बहुत मिलते है। पर पढ़ळी टी बी पर नाटक देखने के लिए लगती है।

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