Saturday 31 December 2016

"लांग" उत्तराखंडी सांस्कृतिक धरोहर

आज के समय में अगर किसी नयी पीढ़ी के युवा जिसकी उम्र लगभग बीस साल के करीब है अगर उन्हें लांग के बारे में पूछा जाये कि लांग क्या है तो शायद ही कोई युवा बता पाए। लांग बद्दी समाज द्वारा गाँव में खेली जाती थी। लेकिन बिगत कुछ सालों में बद्दी सामाज ने गाँव में लांग लगाना बंद कर दिया है। जिसके बहुत सारे कारण है। लांग लगभग बीस फुट बांस के डंडे पर चड़कर खेली जाती थी। इस बांस के डंडे को केवल चारों तरफ से बब्ल्ये की रसियों के सहारे खडा किया जता था इस जमीन में नहीं गाड़ा जाता है। तथा बाँस के डंडे की छोटी धनुष के आकर का बनाया जाता जिसमे बद्दी अपना पेट रखकर चरखी की तरह घूमता है और देवताओं के साथ गाँव से लेकर पट्टी जिला तथा देश के जाने माने लोगों के नाम पुकार कर खंड खेलता है।
जैसे
"माता पार्वती पिता शिवजी जी का खंड बाजे।
तमलाग गाँव की खंड बाजे।
ग्राम पदान की खंड बाजे।
लांग के नीचे गाँव वाले अपने खेतो की मिट्टी रखते है। मान्यता के अनुसार ऐसा करने से खेतों को जंगली जानवर नुकसान नहीं पहुचते है।इस लिंक पर देखिये। जगा रे उत्तराखंडवास्यूं जगा रे जाग्रति गीत क्या हलात हो गयी है रमणीय प्रदेश की जरुर सुने।
बद्दी समुदाय शिवजी का भक्त है। तमलाग गाँव में रहने वाले इस समाज के लोगों का कहना है की जब संसार में हिस्से बांठे जा रहे थे तो शिवजी इस समुदाय का हिस्सा देना भूल गए जब इन लोगों ने शिवजी से कहा की ये हमारे हिस्सा कहाँ  है। तब से शिवजी ने कहा आज के बाद तुम मेरे नाम मेरी भक्ति करके अपना जीवन यापन करोगे। उस दिन से यह लोग शिवजी उपासना करके अपना जीवन  यापन कर रहे है हालाँकि अब इन लोगों में कई लोग अब नौकरी करने लगे है तथा कुछ बैंड बाजे का काम कर रहे है। संगीत इन लोगों की रगों में बहता है। शायद ही कोई होगा इनके समाज में जिसे संगीत का ज्ञान नहीं हो। ये लोग संगीत में निपुण होते है इन्हें संगीत
विरासत में मिलता है। पहले इस समुदाय के पुरुष सिर पर जट्टा रखने के साथ पगड़ी भी पहना करते थे पर आज के दौर में इनके समुदाय का कोई भी पुरुष जट्टा नहीं रखता है जब इनसे जट्टा नहीं रखने की वजह पूछी गयी तो यह कहते है की जब चौरासी के दंगे हुए थे और जिन लोगों की जट्टा हुआ करती थी उने मारा जा रहा था। इसी डर ने इन्हें अपनी जट्टा कटाने को मजबूर कर दिया। ये लोग सदियों से दौर देश में गठित होने वाली घटना पर गीत बना बनाया करते थे। जो आज के दौर में लगभग समाप्त सी हो गयी है। गढ़वाली भाषा की सोशियल मिडिया पर वारयल कविता जो आपने भी जरुर शेयर की होगी।
गीत बनाते समय यह इस बात का बिशेष ध्यान रखते थे कि उस गीत में गते दिनवार और संवत का जिक्र जरुर आना चाहिए। उस गीत को गाँव-गाँव जाकर बजाय करते थे जिससे गाँव के आम लोगों को देश में घटित होने वाले अच्छी और बुरी घटनाओं का पता चल जाता था। बद्दी जब लांग खेलते है तो अलग अलग स्वांग रच कर मुखोटा नृत्य करते है । इसमें प्रसिद्ध स्वांग शिव पार्वती राधाखंडी है। आज भी इन लोगों ने स्वांग के मुखोटों को संभल कर रखा हुआ है।
 आज से करीब पच्चीस तीस साल पहले जब हमारे गाँव में बद्दी समाज द्वारा लांग खेली जाती थी तो लोगों में बड़ा उत्साह रहता था। तथा कुछ बूढ़े लोग लांग लगने पर नाराज भी होते थे। उनका नाराज होने का कारण था। वह कहते है कि जब बद्दी  लांग पर चढ़ता है और खंड बाजे कहकर किसी चीज की मांग करता है तो उसे वह चीज देनी पड़ती है नहीं तो देवदोष लगता एक बार की लांग में हमारे गांवों के बदी समुदाय ने गाँव के पास की जमीन की मांग कर दी वह लांग से उतरने को तैयार नहीं हुआ । गाँव वालों को उसकी मांग पूरी करनी पड़ी। तब से लोंगो ने उन्हें गाँव में लांग लगाने से मना कर दिया। हालाँकि उसके बाद भी इस समुदाय ने लांग लगायी पर उनके साथ शर्त रखी गयी थी। कि वह वाजिब मांग ही कहें।इस लिंक पर देखिये । एक ऐसा गीत जिस सुनकर आपको अपने खोये हुए लोग की याद आ जाएगी।
जब यह लांग लगाते है चार पांच रात इनकी पूरी टीम लोगों का मनोरंजन करते है। जब उनसे अब लांग न लगाने का कारण पूछा गया तो इनका कहना है कि अब हमें अपनी माँ बहनों की सुरक्षा का डर सबसे ज्यादा लगता है। फिर आजकल के हमारे बच्चों को यह अच्छा नहीं लगता क्योंकि लोग हमारे समाज की इज्जत नहीं करते है। बद्दी समाज में जब किसी बुजर्ग की मौत होती है ये लोग सारी रात नाच गाना करते है। यह रीत सदियों से चलती आ रही है। ये किसी की मौत पर मातम नहीं मनाते है उसे अंतिम बिधाई ख़ुशी ख़ुशी दी जाती है।
पहले यह लोग गाँव गाँव जाकर रिंगाल की कंधी भी बेचा करा करते है पर अब इस काम को भी बहार से आने वाली कंघियों ने समाप्त कर दिया है। अभी भी कई बुजर्ग गाँव में होने वाली शादियों में ढोलक लेकर बस रीत निभाने के लिए चले जाते है। इनका कहना है की जब तक हम बुजर्ग लोग जिन्दा है हमने तो अपनी बिरती निभानी ही है। क्योंकि कई ऐसे लोग भी है जो इनके दुखो में बहुत काम आये है।

Wednesday 28 December 2016

उत्तराखंडी लोक संस्कृति को पूरा जीवन समर्पित करने वाला उत्तराखंडी यह परिवार! By (मनोज इष्टवाल)


भौतिकवाद और विलासिता भरे वर्तमान में जहाँ हम उत्तराखंडी अपने गॉव खेत खलिहान रीति-रिवाज सब छोड़-छाड़कर महानगरों में आ बसे हैं वहीँ विगत सदी से वर्तमान तक सिर्फ और सिर्फ अपनी सांस्कृतिक विरासत के विभिन्न रंगों को अपने लेखों, गीतों, रचनाओं और स्वरों में ढालकर कर्णप्रिय बनाकर हमें हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजग करता एक प्रहरी ऐसा भी है जिसका आजतक कोई तोड़ नहीं मिला. जी हाँ, गढ़ रत्न के नाम से प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने विगत सदी से लेकर वर्तमान तक बस एक ही लक्ष्य रखा है कि किस तरह तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में अपने सामाजिक मूल्यों, विरासत में मिली धरोहरों, लोकसंस्कृति की अनूठी मिशाल रहे लोक गीतों व लोक नृत्यों का संरक्षण व संवर्धन किया जा सके जिससे आने वाली पीढ़ी अपने इन अतुल्य बिषयों के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझ इसे इतिहास का एक अध्याय समझने की गलती न करे. इस लिंक पर देखिये। जगा रे उत्तराखंडवास्यूं जगा रे जाग्रति गीत क्या हलात हो गयी है रमणीय प्रदेश की जरुर सुने।
हंसा अमोला
पलायन ने जहाँ एक ओर पूरा पहाड़ तबाह कर दिया है गॉव के गॉव खाली हो गए हैं वहीँ भौतिकवाद के इस युग में विलासिता पर चढ़े आवरण की पर्त ने हमारे लोक समाज के पहनावे को भी उसी कद्र बेढंगा कर दिया है जिस कद्र समाज ने अपने लोक लाज व सामाजिक मूल्यों को तितलान्जली दी है. ऐसे दौर में ऐसा नहीं है मंचों से भले ही हम अपने पहनावे का प्रदर्शन कर वाहवाही लूट रहे हैं लेकिन सामाजिक जीवन में उसे उतारने में नाकाम से हो रहे हैं यह चिंता का बिषय है. कुछ ऐसे चुनिन्दा नाम याद हो आते हैं जिन्हें लोक उत्सवों पर अपनी लोक संस्कृति में व्याप्त आभूषणों व पहनावे में अक्सर देखा गया है जिनमें कुमाऊ की हंसा अमोला, चमोली गढ़वाल की हेमलता बहन, रूद्रप्रयाग की हेमा नेगी करासी, जौनपुर की रेशमा शाह इत्यादि  
हेमा नेगी करासी व रेशमा शाह भी इन परिधानों में मंचों में तब दिखाई देती हैं जब उनके गीत गूंजते हैं जबकि लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी जब भी मंच में उतरते हैं तब उनकी सम्पूर्ण टीम उत्तराखंडी परिधानों में होती है. गढ़वाली भाषा की सोशियल मिडिया पर वारयल कविता जो आपने भी जरुर शेयर की होगी। हंसा अमोला व हेमलता बहन को आप अक्सर अपने परिधानों को प्रमोट करते हुए देख सकते हैं. लेकिन पुरुष बर्ग बिशेष ने अपनी लोक संस्कृति की पहचान के पहनावे जनेऊ की तरह उतार फैंके हैं यह तय है क्योंकि न अब उनके सिर पर टोपी ही दिखती है न मिरजई ! लोक कलाकारों के मंचों को अगर छोड़ दिया जाय तो डी.आर. पुरोहित, नन्द लाल भारती, इंद्र सिंह नेगी, बिजेंद्र रावत सहित दर्जनों नाम आज भी ऐसे हैं जो उत्तराखंडी भेषभूषा के कुछ अंश अपने में समेटे दिखाई देते हैं. वहीँ कई युवाओं को भी हमने गोल व काली टोपी को अक्सर फेशन के रूप में प्रमोट करते हुए देखा है जो हमारी सांस्कृतिक विरासत के लिए एक अच्छी शुरुआत है.
हेमा नेगी करासी
एक ऐसी बेटी जिसने जिंदगी भोपाल में गुजारी हो. शैक्षिक योग्यता के सारे मानक पूरे किये हों रुपहले परदे से लेकर टीवी चैनल्स में उद्घोषिका रही हो. वह जब बहु बनकर अपने उत्तराखंड के एक ऐसे परिवार में आई हो जिसकी रग रग में लोक संस्कृति की आवोहवा घुली मिली हो तब वह बहु क्या करेगी यह सबसे बड़ा प्रश्न है?  
ऐसे प्रश्न का हल चुटकी बजकार हल करने वाली गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी की पुत्रवधु अंजली का जवाब नहीं! हाल ही में दिल्ली के इंदिरापुरम में आयोजित महाकौथीग में अपनी सासू माँ श्रीमती उषा नेगी के साथ शिरकत करने पहुंची इस लिंक पर देखिये । एक ऐसा गीत जिस सुनकर आपको अपने खोये हुए लोग की याद आ जाएगी।अंजलि ने ठेठ अपने परिधानों में गढ़-कल्यो (पहाड़ी व्यंजनों) के स्टाल में अपनी सासू का भरपूर हाथ बंटाया. अंजलि कहती है कि उसने जब गत्ति धोती, मुन्डासु, पटका, नथ, बुलाक/बिसार, गुलबन्द, पौंची इत्यादि पहनी तो वह अपने निखरे रूप को देखकर दंग रह गयी. ऐसा नहीं कि उसने यह पहले कभी न किया हो. वह कहती हैं मैंने अपनी शादी में भी यह सब पहना उस से पहले इस घर की बहु बनने के लिए क्या जरुरी है वह सब समझा. मैं गत्ती धोती पहले भी लगाती थी लेकिन उसकी गाँठ उल्टी मारती थी अब सासू जी ने सब सिखा दिया है.
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अंजली कहती है कि गढ़-कल्यो का स्वाद तो लोग चख ही रहे थे लेकिन बुजुर्ग माँ यें मुझे दिल्ली जैसे शहर में आकर अचम्भे की तरह देखती हुई अपने अतीत को ताजा कर जहाँ आशीर्वाद दे रही थी वहीँ वर्तमान की बेटियाँ वाहू..जैसे शब्द मुंह से निकालकर बड़ी ललचाई नजर से मेरी भेषभूषा को निहार रही थी. अंजलि ने बताया कि एक सुसभ्य परिवार की बेटी ने तो अपनी माँ से वहीँ जिद करनी शुरू कर दी कि मैं अपनी शादी में बिलकुल इसी भेषभूषा को अपनाउंगी ताकि मैं नाज कर सकूं कि मैं पहाड़ की बेटी हूँ.
अपने पहनावे से बेहद उत्साहित अंजली कहती है कि मुझे सचमुच उस दिन लगा कि क्या मेरा रूप यौवन इस परिधान में इतना निखर गया है जो सारी माँ बहनें मुझे देखकर इस तरह की प्रशंसा कर रही हैं. जाने कितनी बार पहली बार मैंने शीशे में अपने आप को अपनी पारंपरिक पोशाक व गहनों में आत्ममुग्ध होते देख है. वह बताती हैं कि उनकी फूफू जी की हाल ही में कोटद्वार में शादी हुई तब उन्होंने भी अपने ठेठ पहाड़ी परिधानों को ही इस सब के लिए चुना.  
अपने पति कविलास नेगी के गीत “मुझको पाड़ी मत बोलो में देहरादून वाला हूँ” पर सोशल साईट में चर्चा के बाद वरण करने वाली अंजलि आत्ममुग्ध है कि जाने किन गुणों के कारण वह एक ऐसे परिवार की बहु बनी जहाँ सब कुछ बेहद अनुशासित ढंग से सुसंस्कृति के तौर पर अपनाया जाता है. वे अपनी सासू जी को अपनी सहेली से कम नहीं मानती जो उन्हें पकवानों की एक एक टिप्स बहुत सलीखे से देती हैं यही कारण भी है कि अंजलि आज पल्यो, छछिंडा, उग्रा,बाड़ी, झंग्वरा, थैंच्वाणी, चैंसा, फाणु, पटुडी सहित दर्जनों पकवान बनाना सीख गयी हैं जो उनके मुंह में भी रच बस गए हैंइस लिंक पर देखिये - गढ़वाली सुपरहिट फिल्म भाग-जोग 
श्रीमती उषा नेगी कहती हैं कि 35 बर्ष पूर्व जब वह अपना मायका छोड़कर नेगी जी की अर्धांग्नी बनकर इस घर में आई थी तब उनकी सोच भी नहीं थी कि एक दिन उनके नाम के पीछे अपना नाम जोड़कर मैं चलूँ शायद नेगी जी भी नहीं चाहते थे कि मैं सिर्फ श्रीमती नेगी ही कहलाऊं. उन्होंने मुझे कहा कि तुम में क्षमता है कि तुम अपने आप भी उषा नेगी बनकर समाज के समक्ष अपनी साख बना सकती हो लेकिन कैसे यह तुम्हे सोचना है. तब से मैं इसी उधेड़बुन पर लगी रही कि किस तरह कुछ ऐसा करूँ कि सिर्फ नेगी जी के सांस्कृतिक मंचों में परिचय के अलावा भी मेरा कुछ अपना हो. आखिर 1998 में मुझे अपने आपको समाज के आगे साबित करने का समय मिला जब मैंने गढ़-कल्यो के रूप में गढ़वाल महोत्सव में अपनी स्टाल लगाईं. तब मैं अपने गॉव परिवार के ही एक जेठ जी जोकि अफसर पद पर है उन्हें अरसे की ताक़/पाक लगाने के लिए झिझकते हुए बोली उन्होंने मेरे इस प्रयास की सराहना की और एकदम राजी हो गए. गॉव की ग्रामीण महिलाओं की सहभागिता व अपनी ननद जेठ सासुओं की सहभागिता के बाद गढ़-कल्यो के स्वाद सभी के मुंह को भाने लगे और इस तरह श्रीमती नरेंद्र सिंह नेगी की जगह श्रीमती उषा नेगी भी गढ़-कल्यो के रूप में अपने नाम से जानी जाने लगी. वे इसे अपना सौभाग्य समझती हैं कि उन्हें नरेंद्र सिंह नेगी की धर्मपत्नी कहलाने का सम्मान मिला. वे कहती हैं कि महाकौथीग में भी मुझे कई लोग कह रहे थे कि अपने गढ़-कल्यो के स्टाल में आपको नेगी जी की फोटो लगा लेनी चाहिए मेरा एक ही जवाब था कि माना मैं उनकी पत्नी हूँ लेकिन मैं रचनाएं लेकर नहीं बल्कि अपने पारंपरिक पकवान लेकर आई हूँ. गढ़-कल्यो से नेगी जी का कोई लेना देना नहीं है क्योंकि वे अपनी विधा के पारंगत हैं और मैं अपने पकवानों पर भरोंसा रखती हूँ कि ये जरुर आपके मुंह का स्वाद बनाए रखेंगे. (भाग-जोग ) पार्ट दो को इस लिंक ओपन करके देखिये, 
अपनी संस्कृति के लिए जो परिवार पूरा जीवन ही समर्पित कर दे भला ऐसे परिवार के प्रति समाज क्यों नहीं जागरूक होगा. उषा नेगी को बस एक ही चिंता थी कि आने वाले समय में उनकी बहु व बेटा क्या उनकी व नेगी जी की तरह अपनी सामाजिक धरोहरों, लोक विधाओं या लोक संस्कृति के प्रति यूँहीं चेतना रख भी पायेंगे या नहीं लेकिन उन्हें बेहद ख़ुशी है कि उनकी बहु व बेटे भी उसी मार्ग की ओर अग्रसित हैं जहाँ बेहद चुभन भरे कांटे और त्याग हैं लेकिन एक संतुष्टि है कि समाज कहीं न कहीं उनकी गली से होकर जरुर गुजरता है. एक ऐसी गली जो विगत सदी में भी रही और इस सदी के लिए भी उन्होंने उसकी पौ तैयार कर दी है. सबसे ज्यादा ख़ुशी तो इस बात की है कि उनकी बहु उन परिधानों को आम जिन्दगी में प्रमोट करने की बात रखती है जिन्हें हम बहुत पीछे छोड़कर अपना अस्तित्व मिटाने को तैयार बैठे हैं. चिंता ये भी है कि अब जौनसार बावर या पिथौरागढ़ जिले का सीमान्त ही क्या उत्तराखंडी संस्कृति का जीवन जियेगा हम बाकी क्या संस्कृतिशून्य हो गये है! यही यक्ष प्रश्न भी है?

फ़ोटो-मनोज इष्टवाल


Sunday 25 December 2016

आज की मेहमान पोस्ट में पढ़िए पेशावर के हीरो की कहानी - उदय दिनमान के माध्यम से

तेइस अप्रैल, 1930 को बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपने पैरों तले जमीन खिसकती हुई-सी महसूस होने लगी। इस दिन हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने देश की आजादी के लिए लडऩे वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों ने तो पठान स्वतंत्रता सेनानियों के विरूद्ध गढ़वाली फौज को उतारा ही इसलिये था कि हिंदू-मुस्लिम विभाजन का ‘बांटो और राज करो’ खेल जो वे 1857 के ऐतिहासिक विद्रोह के बाद से इस देश में खेलते आये थे, उसे वे पेशावर में एक

Saturday 24 December 2016

हमारु इमान

वू मनखी हौर हुंदन, जौंकि किस्मत मा
प्वटगै बिटि,चमकुणू लेख्यूं रांदू.
हमारि दौं त,खैरायूं सर्ग बि
ऐन मौका पर, बदळै जांदू .
अगर कबि ,छप्पर फाड़ी
हमारा ऐंच,कुछ प्वड़ बि जांदूू.
त वू बि हमारि किस्मत मा
भौत देर तक, टिक्यूं नि रांदू .
हमारा दिख्द-दिख्द, वू इन स्वाँ ह्वे जांदू
जन उज्याळा तैं,अंध्यारु घूळ जांदूू .
पर इन नि समझा कि
अंध्यारा देखी, हमारु ज्यू घबरांदू.
हमारु, हर कदम
हमतैं यू दिलासू,दिलौणू रांदू.
कि झुका ना, ऐथर बढ़दि रा
उंदार-उकाळ त,जिंदगी मा लग्यूं रांदू .
इलै ठोकर खै-खैकि बि, हमारु इमान
पाड़ जन,अडिग रांदू .

Thursday 22 December 2016

मासूमियत से जिद्द


बच्चो की हसीन मासूमियत,
कुछ भी मांगाने पर बिबस कर देती है।
बच्चो की हसीन मासूमियत।।

जिस खिलोने की जिद्द उसने आज पकड़ी है,
वह मेरी पहुँच से कोसो दूर है।
उसका पापा मजबूर है,
पर उसकी मासूमियत भरे शब्दों ने,
मुझे दिलाने पर बिबस कर दिया है।
इस लिंक पर देखिये एक सुंदर गढ़वाली 
खुदेड गीत। आपको अपनों की याद आ जाएगी
मुझे पता है!
पल में उस खिलोने से मन भर जायेगा,
वह उसे तोड़ेगी। कुछ देर बाद छोड़ेगी।
फिर भी उसकी मासूमियत ने।
मुझे खरीदने पर मजबूर कर दिया।।

वह खुश है मेरी ख़ुशी इसमें है,
पर मुझे इस बात का ख्याल रखना है।
उसकी ये मासूमियत को जिद्द में न बदलना है।
क्योंकि जिद्द गलत काम करने पर मजबूर कर देती है,
एक दिन बचपन को बच्चे से दूर कर देती है।
इस लिंक पर सुनिए -किस दौर से गुजर रहा है अपना 
उत्तराखंड सुनिए उत्तराखंडी जाग्रति गीत
तोड़ा सा प्यार से कठोर होना पड़ेगा,
तभी वह सही राह पर चलेगा।
देर होने से पहले मुझे जागना है,
अपनी कसौटी पर उन्हें आंकना होगा।।
बच्चो की हसीन मासूमियत,
कुछ भी मांगाने पर बिबस कर देती है।
बच्चो की हसीन मासूमियत।।



Friday 16 December 2016

छोड़ा तुम क्या लगाण, #Garhwali Poem By # Pardeep Singh Rawat "Khuded"





   छोड़ा तुम क्या लगाण,
   अपडा  घौरा हाल तुमा क्या बताण।
   अपडू ठाटा अफि क्या लगाण,
   अपड़ा घौरे छवि भ्यार क्यांकू सराण।
    सांगी पर डूट्याल पूर्व्य लग्य छन,
    गौं का नौजवान प्रदेश बस्या छन।
    इख त बस बुढया बच्या छन,
    तेरेह खाणू नजिमाबाद बामुण अया छन।
    इखा बामणु त दिल्ली पूजा पर लग्या छन। ।
    गढ़वाली भाषा की सोशियल मिडिया पर वारयल
    कविता जो आपने भी जरुर शेयर की होगी।
    पत्रकार  लोगबाग देरादून बसग्येन,
     गवें खबर पेपर बटि हर्चीग्येन।
    लैन मा खड़ा हुयां स्यू सरकारा द्वारमा,
    लम्बी-लम्बी गाडी लियेन स्यूं इश्तिहार मा।
    इस लिंक पर देखिये । एक ऐसा गीत जिस सुनकर
   आपको अपने खोये हुए लोग की याद आ जाएगी।
     दिल्ली चंडीगढ़ बम्बे वोळा फोंद्या बणया छन,
     अफु त भाषा बोना नि छन।
     हर कालोनी मा छ्कण्या संस्था बणि छन,
     सालेक मा नाच गणा कनि छन।
     एकता नौ पर बौगा मनि छन।। 

Monday 5 December 2016

लेखक - नरेंद्र कटैत # गढ़वाली भाषा की शब्द सम्पदा से गांव की तस्वीर गौं #Garhwali Poem By #PardeepRawat Khuded


गौं फकत एक जगौ नौ नी होंदू। धारा-पन्द्यारा, ओडा-भीटा, उखड़ी -सेरा अर मल्ली-तल्ली सारौ नौ बि गौं नी होंदू। गौं सि पैली जंै चीजौ नौ सबसि पैली औंदू, वो क्वी न क्वी एक मवासू होंदू। वो मवासू तैं जगा मा अपड़ि मौ बणौंदू। फेर वीं मौ की द्वी मौ, द्वी का तीन, तीनै छै, छै कि नौ अर इनि कयि मवासूं कु एक गौं ह्वे जांदू। पर कुल मिलैकि सौ कि नौ , जब मौ च त तब गौं । निथ्र बिगर मौ कु न क्वी गौं ह्वे सक्दू अर न बिगर गौं कि क्वी मौ। मौ बढ़दि-बढ़दि जब कै मौ कु तैं वे गौं मा घस्ण-बस्णू तैं जगा नी रै जांदि त वा मौ कैं हैंकि जगा बसागतौ चल जांदि। वीं जगा मा वा मौ बि एका द्वी, द्वी का चार, चारा-आठ अर देख्द-देख्द एक हैंकु नयू गौं बसै देंदि। अर इनि होंद-कर्द अपड़ि मौ बणौणू क्वी बि मवासू एक गौं लांघी हैंका गौं, एक पट्टी बिटि हैंकि पट्टी अर पट्यूं बिटि परगनौं तक सर्कि-सर्की अपड़ि झोळी -तुमड़ी, अपड़ि बोल चाल, अर अपड़ा रिति-रिवाज बि उकरी ली जांदि।इस लिंक पर देखिये। जगा रे उत्तराखंडवास्यूं जगा रे जाग्रति गीत क्या हलात हो गयी है रमणीय प्रदेश की जरुर सुने।
गौं मा मौ नौ छन चा सौ, सबसि पैली यि पूछे जांदू - क्या च गौं कु नौ? यि जरुरी नी कि कै गौं कु नौ, कै मौ का नौ पर ह्वलु! गौं कु नौ किरमोळी, पुरमुसी, भुतनीसि बि ह्वे सक्दू। ‘रैं गौं’ का नजीक जैकि हमुन एका मनखी तैं पूछी- भैजी ये गौं कु नौ ‘रैं गौं’ किलै प्वड़ि? वेन जबाब दे- भुला! हमारु क्वी पुराणू बल, ए गौं मा ऐ छौ, वेकु यख मन लगी अर वू इक्खि रै बस ग्या। इक्खि रै बस ग्या त गौं कु नौ बि ‘रैं गौं’ प्वड़ ग्या।

खैर यिं बात तैं हम बि मणदां कि बिगर बातौ कै बि गौं कु नौ नी प्वड़ि। ब्वेन जोड़ी त गौं कु नौ बैंज्वड़ि, ब्वेन गोड़ी त बैंग्वड़ि, उज्याड़ खयेगि त उज्याड़ि। इन्नि घिंडवड़ा, सुंगुरगदन्या, मरच्वड़ा, कंडी गौं, कुखुड़ गौं, मसण गौं का नौ मा बि कुछ न कुछ जरूर ह्वलू। अलग-बगला कुछ गौं का नौ त भै- भयूं का सि लग्दन। जन्कि कोट-कोटसड़ा, घुन्न्ना-पसीणा, सीकू-भैंस्वड़ा । यूं गौं अर वूंका नौ का बीच खूनौ सि रिस्ता लग्दू। कयि गौं मा त मौ, नौ छन चा सौ, गौं कु नौ हि रख दिंदन- नौ गौं। सैद, इनि क्वी पट्टी-परगना नी जख एक ना एक गौं कु नौ ‘नौ गौं’ नी। पर सब्बि गौं, ‘नौ गौं’ नीन्। गढ़वाली भाषा की सोशियल मिडिया पर वारयल कविता जो आपने भी जरुर शेयर की होगी।
पैली बाटा फुण्ड क्वी बि पूछ देंदू छौ- भुला कै गौं कु? फट जबाब तयार रौंदू छौ- फलाणा गौं कु। ये जबाब देण पर हैंकु जरुरी सि सवाल पूछै जांदू छौ - कैं मौ कु? यु बि मुख जुबानी सि याद रौंदू छौ - फलाणी मौं कु। इथगा ब्वन पर पुछुण वळै आँख्यूं मा वीं मौ अर वे गौं कि सर्रा तस्वीर सि गर्र घूम जांदि छै। फेर त ब्वन बचल्योणौ एक तार सि जुड़ जांदू छौ । चा वू पुछुण वळू कख्यो बि, किलै नी रै हो। जन्कि, अरे! इना सुणा दि वे गौं कु त वू बि त छौ। अजक्याळ वू कख ह्वलू?
गौं मा जु कुछ बि छौ वो सौब कैदा मा बन्ध्यूं छौ। कैदा सि भैर क्वी नी जांदम छौ। गौं कि सीमा मा कानून त कबि-कबार औंदू छौ। एक न एक छुटा नौनै किलकार्यू नौ गौं छौ। गौं मा एक नागरजा, एक नरसिंग, एक देब्यू थान होंदू छौ। एक औजी मौ, एक ल्वार मौ बि जरुर होंदू छौ। सजड़ाऽ उंद भ्वर्यूं तमाखू क्वी भेद-भौ नि कर्दू छौ। द्यब्तौं छोड़ि ‘आदेस’ देणै बि क्वी हिकमत नी कर्दू छौ। क्वी कैकु गाक नी छौ। हर क्वी अपड़ा काम मा सल्ली अर अपड़ि मरज्यू मालिक छौ। बक्त पर मौ मदद अर धै कु नौ बि गौं छौ। गौं का नजीक बजारै जगा झपन्याळू बौण छौ। इस लिंक पर देखिये । एक ऐसा गीत जिस सुनकर आपको अपने खोये हुए लोग की याद आ जाएगी।
गौं मा क्वी खास अपड़ा छौ चा नी छौ पर गौं कु लाटू-कालू बि अपड़ा छौ। गौं मा खेती पाती समाळ्नू तैं बल्दी बल्द नी होंदा छा। घर गिरस्थ्या काम मा हाथ बंटौणू तैं गोर- बखरा बि होंदा छा। गौं मा एक द्वी हळ्या, एक द्वी ग्वेर, एक द्वी गितेर, एक द्वी मरखोड्या सांड, एक द्वी गळया बळद, एक आत बोड़, द्वी चार बाछी, दस-बीस गौड़ी, पन्द्रा-बीस भैंसा, एक द्वी लेंडी कुकुर अर एक आत खदोळा कुकुर त होंदै होंदा छा। पर गौं मा बारा मौ अर कुकुर अठारा कबि नी ह्वेनि। या बि क्वी कम बात नी छै । एक बात हौर, उड्यार अर खन्द्वार बिटि च्यूंण वळा पाण्या धारौ तैं ‘पणधारु’ ब्वल्ये जांद। पर पंद्यारु एक इनि चीज च जु गौं का बीच साफ पाणी छळकौंदू नजर औंदू छौ।
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गौं कि किस्मत मा झणी कना गरुड़ रिटनी कि लोगुन मौ बणौणू तैं गौं छोड़ देनी। मौ बण गेनी पर लोग गौं तब बि नी ऐनी। कुछ अज्यूं बि घंघतोळ मा छन कि गौं मा रौं कि नी रौं। पर इन क्वी नी ब्वनू कि चा कुछ बि ह्वे जौ मी गौं छोड़ी नी जौं। पैली बड़ी मौ जाणी फेर वीं मौ का पैथर छुटी मौ। कै बि गौं मा मौ एक छै चा सौ, पर गौं मा क्वी न क्वी त छैं छौ। अब त एक-एक कैकि खाली ह्वे ग्येनि, गौं का गौं।
एक दिन हमारा गौं कि एक मौ कु सबसि दानू मनखी भाभर मा बखरौं चरौंद मिल ग्या। रमारुम्या बादा हमुन पूछी -भैजी! क्य अपड़ा गौं याद नी औणू? वेन जबाब दे- अरे भुला! अपड़ा गौं कै तैं याद नी औलू? एक दौं गौं जाणू पैटी बि छौं पर अधबाटा मा जैकि लौट ग्यों। हमुन पूछी- अधबाटा मा जैकी किलै लौट्यां? वेन बोली- किलै त वूलै लौट्यों अरे! घंघतोळ मा प्वड़ ग्यों कि गौं जौं कि नी जौं? हमुन फेर पूछी- तुम घंघतोळ मा किलै प्वड़यां? दानन् बोली- ब्यटा! एक तिरपां ‘कूंडी’ छौ अर हैंकि तिरपां ‘पाबौ’। घंघतोळ मा प्वड़ ग्यों कि पैली कूंड़ी जौं कि पाबौ? कूंडी मा द्यब्तौ थान अर पाबौ मा रजौ दरबार लग्यूं रौंदू छौ। पैली कूंडी जांदू त रजा नरक्ये जांदू अर पैली पाबौ जांदू त द्यब्तौ असगार खांदू। इलै अधबाटा मा जैकी बि लौट ग्यों।
हमुन् बोली- भैजी! अब न रजा रयूं न द्यब्तौ कि डौर-भौर। चुचैं! अब त ऐ ल्या धौं अपड़ा गौं


लेखक - नरेंद्र कटैत
गढ़वाली व्यंग्यकार 

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