अपने शबाब से सूरज अब ढलने लगा है,
अब तो बटोई भी अपने घर को चलने लगा है।
बस, मै ही इन शहर की गलियों में कुछ खोज रहा हूँ,
काम बहुत है अभी चलता हूँ, बस अभी मै सोच रहा हूँ।
इस लिंक पर देखिये। जगा रे उत्तराखंडवास्यूं जगा रे जाग्रति गीत क्या हलात हो गयी है रमणीय प्रदेश की जरुर सुने।
धीरे- धीरे सूरज ढला अन्धेरा हुआ और घना,
बोण पंछियों ने भी ले ली अपने घरोंदो में पनहा।
मै इस शहर में मकान नहीं एक घर खोज रहा हूँ,
भोग-बिलास की सारी वस्तुयें है,
बस, मै ही इन शहर की गलियों में कुछ खोज रहा हूँ,
काम बहुत है अभी चलता हूँ, बस अभी मै सोच रहा हूँ।
इस लिंक पर देखिये। जगा रे उत्तराखंडवास्यूं जगा रे जाग्रति गीत क्या हलात हो गयी है रमणीय प्रदेश की जरुर सुने।
धीरे- धीरे सूरज ढला अन्धेरा हुआ और घना,
बोण पंछियों ने भी ले ली अपने घरोंदो में पनहा।
मै इस शहर में मकान नहीं एक घर खोज रहा हूँ,
भोग-बिलास की सारी वस्तुयें है,
फिर भी बेचैन क्यूँ हूँ, यही मैं सोच रहा हूँ।
गढ़वाली भाषा की सोशियल मिडिया पर वारयल कविता जो आपने भी जरुर शेयर की होगी।
भ्यारें में दीये जले चूल्हों में जलने लगी आग,
सरसों के तेल में जख्या का तड़का, थड़ाकता मूली का साग।
बस ! मै शहर के रेस्टोरेंट में बैठकर भूख खोज रहा हूँ,
पेट तो भर गया पर स्वाद क्यों नहीं मिला, यही सोच रहा हूँ।
इस लिंक पर देखिये । एक ऐसा गीत जिस सुनकर आपको अपने खोये हुए लोग की याद आ जाएगी।
कभी दस लोगों की टोली, घर के आँगन में थी खेलती,
गाँव में आज मेरी माँ अकेले में मंडवा की रोटी है बेलती।
मै इस शहर में उस बचपन को खोज रहा हूँ,
उन याद़ों की पोटली को मार्बल के फर्श पर कहाँ रखू, यही सोच रहा हूँ।
इस लिंक पर देखिये - गढ़वाली सुपरहिट फिल्म भाग-जोग
रात बीत गयी मेरी ज़िन्दगी का एक दिन हो गया कम,
ख़ुशी ढूढने भटक रहा था यहाँ, मिलापहाड़ से बिछड़ने का गम।
इस शहर में अपनी खफायी जवानी मै खोज रहा हूँ,
बुढ़ापे में पहाड़ पर क्यों बोझ बनू मै, यही मै सोच रहा हूँ।
(भाग-जोग ) पार्ट दो को लिंक ओपन करके देखिये,
गढ़वाली भाषा की सोशियल मिडिया पर वारयल कविता जो आपने भी जरुर शेयर की होगी।
भ्यारें में दीये जले चूल्हों में जलने लगी आग,
सरसों के तेल में जख्या का तड़का, थड़ाकता मूली का साग।
बस ! मै शहर के रेस्टोरेंट में बैठकर भूख खोज रहा हूँ,
पेट तो भर गया पर स्वाद क्यों नहीं मिला, यही सोच रहा हूँ।
इस लिंक पर देखिये । एक ऐसा गीत जिस सुनकर आपको अपने खोये हुए लोग की याद आ जाएगी।
कभी दस लोगों की टोली, घर के आँगन में थी खेलती,
गाँव में आज मेरी माँ अकेले में मंडवा की रोटी है बेलती।
मै इस शहर में उस बचपन को खोज रहा हूँ,
उन याद़ों की पोटली को मार्बल के फर्श पर कहाँ रखू, यही सोच रहा हूँ।
इस लिंक पर देखिये - गढ़वाली सुपरहिट फिल्म भाग-जोग
रात बीत गयी मेरी ज़िन्दगी का एक दिन हो गया कम,
ख़ुशी ढूढने भटक रहा था यहाँ, मिलापहाड़ से बिछड़ने का गम।
इस शहर में अपनी खफायी जवानी मै खोज रहा हूँ,
बुढ़ापे में पहाड़ पर क्यों बोझ बनू मै, यही मै सोच रहा हूँ।
(भाग-जोग ) पार्ट दो को लिंक ओपन करके देखिये,
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