Wednesday 13 July 2016

मी से अब हौरि हाळि-झाळि नि हूंदी । सच्चे मी से अब आळि-टाळि नि हूंदी ॥ Garhwali Poem By Payash Pokhra



मी से अब हौरि हाळि-झाळि नि हूंदी ।
सच्चे मी से अब आळि-टाळि नि हूंदी ॥

निसिणि जि किळै कैरु मि कैका बाना ।
न भै, मी से अपणि रात काळि नि हूंदी ॥

जत्गा खतुदु उत्गा हौरि भ्वरे जांदा ।
मयळ्दु खुचिलि कभ्भी खाळि नि हूंदी ॥

जलमजात कु गळद्यवा छे, दे ले छक्वै ।
पर मी खुणै तेरि गाळि, गाळि नि हूंदी ॥

सदनि लुण्यां-काजोळ आंसु ब्वगणा रैं ।
मेरि खुदेड़ आंखि कभि छाळि नि हूंदी ॥

जु जिकुड़ा का भीतर च, वी भैर भि चा ।
भला आदिम से कतै इंद्रजाळि नि हूंदी ॥

आज म्यारु गौं सोरग से कम नि हूंदु ।
जु द्वार-मोर-संगडु फर ताळि नि हूंदी॥

गौं का द्यप्ता गौं मै रैंदा, सरत लगैले ।
नेतौं का हथुम जु डौंरि-थाळि नि हूंदी ॥

कन जि नि द्यख्दा भय्यूं का सुख-दुख ।
जु द्विया भितरौं का बीच पाळि नि हूंदी ॥

यो मोळ कु माद्यौ सदनि मोळ रै जांदु ।
जु अंध्यरा मा तिल बत्ती बाळि नि हूंदी ॥

समळौण्यां खुद थैं, को समळांदु 'पयाश'?
जु धार पोर यखुलि कुळैं डाळि नि हूंदी ॥


@पयाश पोखड़ा ।

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