उठो, चलो, बढ़ो तुम!
क्यों बिखरे हो ?
अब एक हो चलो तुम!
क्यों कटे हो ?
अपनी जड़ों से जुड जाओ तुम!
शान्ति अहिंसा सच्चाई को शस्त्र बना लो,
मुठियों के ताप से मशालों को जला लो।
दूसरे की लकीर को मत मिटाओं,
अपनी लकीर को तुम बड़ी बनालो।
उठो, चलो, बढ़ो तुम!
कदमों की थाप से धरा हिलनी चाहिए,
हूँकारों की भाप से बर्फ पिघलनी चाहिए।
सूरज रात में भी निकलने को मजबूर हो जाए,े
क्रान्ति की मशाल ऐसी जलनी चाहिए।
उठो, चलो, बढ़ो तुम!
अखंड हो तुम क्यों खंड-खंड हो रहे हो,
एक दागे के मोती हो क्यों स्वछंद हो रहे हो।
वक्त का तगजा है, एक ओट में आ जाओ,
रक्त का जगजा है एक गोद में आ जाओ।
उठो, चलो, बढ़ो तुम!
नदी नयारों से निकलकर एक गंगा बन जाओं,
बांझ की जड़ो का पानी पीया है हिमालय से तन जाओं।
मंडुवा भटट गैत की ताकत को आज तुम दिखला दो,
हम भी गौरा सुमन के नाती है आज तुम बतला दो।
उठो, चलो, बढ़ो तुम!
हिमाल के हम है सब सिपे-सलार,
कभी नही मानी है हमने अपनी हार।
सीमाओं पर भी सीना ताने खडे़ है,
अपने हक को लेने को अब हम चले है।
उठो, चलो, बढ़ो तुम!
हिमालय सा दृढ़ है हमारा ये हौंसला,
अब मंजिलों से दूर नही हमारा फासला।
आसमान की ऊँचाईयों को हमें इरादों से नापना है,
अपने विश्वास से अब हमे सुते को भी लंगना हैं।
उठो, चलो, बढ़ो तुम!
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