Friday 15 July 2016

विजय ने लौटायी प्रकृति की मुस्कान विजय जड़धारी पर्यावरणविद् vijay jaddhari

विजय ने लौटायी प्रकृति की मुस्कान

संवाद सहयोगी, चम्बा : पर्यावरण संरक्षण की दावे करने वाले तमाम हैं पर उन्हें धरातल पर उतारने का हौसला रखने वाले कम ही लोग देखने को मिलते हैं। पर्यावरणविद् विजय जड़धारी भी ऐसी ही शख्सियत हैं जिन्होंने अपने प्रयासों से न केवल नंगे होते पहाड़ों को हराभरा बनाया बल्कि तमाम ग्रामीणों को इस दिशा में जागरूक भी किया। ग्रामीणों ने उनके प्रयासों से सीख ली और आज वे भी जंगल का संरक्षण करने में जुटे हैं। 1यहां बात हो रही है जनपद के चम्बा प्रखण्ड के सबसे बड़े गांव जड़धार के जंगलों की, जहां की हरियाली हर किसी को भाती है, पर पहले ऐसा नहीं था। यह संभव हुआ पर्यावरणविद् व गांव निवासी विजय जड़धारी के अथक प्रयासों से।
जड़धार गांव
 उन्होंने वृक्षविहीन पहाड़ी पर हरियाली लौटाने की जो मुहिम शुरू की थी वह ग्रामीणों के सहयोग से परवान चढ़ी और धीरे-धीरे वहां हरा भरा जंगल तैयार हो गया। सन् सत्तर के दशक में विजय जड़धारी ने चिपको आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। आंदोलन की सफलता के बाद जब वे गांव लौटे तो देखा कि अनियोजित दोहन के कारण गांव का नजदीकी जंगल कम होता जा रहा है और पहाड़ नंगे हो रहे हैं। इस पर उन्होंने चिंतन किया कि चिपको आंदोलन चलाकर वनों के व्यापारिक कटान पर तो रोक लगा दी लेकिन अपने गांव का नजदीकी जंगल खत्म हो रहा है और उसे अगर नहीं बचा सके तो चिपको आंदोलन का भी कोई महत्व नहीं रह जाएगा। बस फिर क्या था। सन् 1989-90 में उन्होंने गांव में वन सुरक्षा समिति का गठन कराया। समिति ने गांव की खाली भूमि पर ग्रामीणों के सहयोग से दस हजार से अधिक बांज, काफल, पयां, सिंस्यारू आदि चारापत्ती वाले पौधों का रोपण करवाया। जो कुदरती जंगल बचा था उसके संरक्षण के लिए चौकीदार नियुक्त किए और उनका मानदेय देने के लिए गांव के हर परिवार से आर्थिक सहयोग लिया गया। समिति ने तय किया कि जंगल से कोई भी कच्ची लकड़ी नहीं काटेगा न ही कोई अपने पशु जंगल में चुगाने ले जाएगा। केवल गिरी पड़ी लकड़ी ही जंगल से ली जायेगी। घास का कटान होगा, लेकिन पेड़-पौधों को क्षति नही पहुंचाई जाएगी। लोगों ने इसका पालन भी किया और देखते ही देखते एक दशक में ही गांव की नजदीकी पहाड़ियां हरी-भरी हो गई। तब से गांव में यही व्यवस्था चली आ रही है। आज करीब दस वर्ग किमी क्षेत्रफल में बांज-बुरांश, काफल आदि का जंगल लहलहा रहा है। इससे लोगों की घास लकड़ी की जरूरतें भी पूरी हो रही हैं तो पेयजल की स्रोत भी रीचार्ज हुए हैं। जंगल के संरक्षण की कमान विजय जड़धारी आज भी संभाले हुए हैं और ग्रामीणों को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित कर रहे हैं। आज करीब अट्ठाइस साल हो गये हैं इस मुहिम को शुरू हुए और ग्रामीण इसे आगे बढ़ा रहे हैं। खास बात यह है कि गर्मियों के सीजन में जब जंगल में आग लगती है तो ग्रामीण स्वयं आग बुझाने दौड़ पड़ते हैं और जान जोखिम में डालकर आग बुझाते हैं। यहां के जंगल में वन विभाग का भी हस्तक्षेप नही है। विभाग को पता है कि गांव वाले खुद जंगल का संरक्षण कर रहे हैं, इसलिए वे अनावश्यक हस्तक्षेप कभी नहीं करते।संवाद सहयोगी, चम्बा : पर्यावरण संरक्षण की दावे करने वाले तमाम हैं पर उन्हें धरातल पर उतारने का हौसला रखने वाले कम ही लोग देखने को मिलते हैं। पर्यावरणविद् विजय जड़धारी भी ऐसी ही शख्सियत हैं जिन्होंने अपने प्रयासों से न केवल नंगे होते पहाड़ों को हराभरा बनाया बल्कि तमाम ग्रामीणों को इस दिशा में जागरूक भी किया। ग्रामीणों ने उनके प्रयासों से सीख ली और आज वे भी जंगल का संरक्षण करने में जुटे हैं। 
एक मुलाकात विजय जड़धारी पर्यावरणविद्
1यहां बात हो रही है जनपद के चम्बा प्रखण्ड के सबसे बड़े गांव जड़धार के जंगलों की, जहां की हरियाली हर किसी को भाती है, पर पहले ऐसा नहीं था। यह संभव हुआ पर्यावरणविद् व गांव निवासी विजय जड़धारी के अथक प्रयासों से। उन्होंने वृक्षविहीन पहाड़ी पर हरियाली लौटाने की जो मुहिम शुरू की थी वह ग्रामीणों के सहयोग से परवान चढ़ी और धीरे-धीरे वहां हरा भरा जंगल तैयार हो गया। सन् सत्तर के दशक में विजय जड़धारी ने चिपको आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। आंदोलन की सफलता के बाद जब वे गांव लौटे तो देखा कि अनियोजित दोहन के कारण गांव का नजदीकी जंगल कम होता जा रहा है और पहाड़ नंगे हो रहे हैं। इस पर उन्होंने चिंतन किया कि चिपको आंदोलन चलाकर वनों के व्यापारिक कटान पर तो रोक लगा दी लेकिन अपने गांव का नजदीकी जंगल खत्म हो रहा है और उसे अगर नहीं बचा सके तो चिपको आंदोलन का भी कोई महत्व नहीं रह जाएगा। बस फिर क्या था। सन् 1989-90 में उन्होंने गांव में वन सुरक्षा समिति का गठन कराया। समिति ने गांव की खाली भूमि पर ग्रामीणों के सहयोग से दस हजार से अधिक बांज, काफल, पयां, सिंस्यारू आदि चारापत्ती वाले पौधों का रोपण करवाया। जो कुदरती जंगल बचा था उसके संरक्षण के लिए चौकीदार नियुक्त किए और उनका मानदेय देने के लिए गांव के हर परिवार से आर्थिक सहयोग लिया गया। समिति ने तय किया कि जंगल से कोई भी कच्ची लकड़ी नहीं काटेगा न ही कोई अपने पशु जंगल में चुगाने ले जाएगा। केवल गिरी पड़ी लकड़ी ही जंगल से ली जायेगी। घास का कटान होगा, लेकिन पेड़-पौधों को क्षति नही पहुंचाई जाएगी। लोगों ने इसका पालन भी किया और देखते ही देखते एक दशक में ही गांव की नजदीकी पहाड़ियां हरी-भरी हो गई। तब से गांव में यही व्यवस्था चली आ रही है। आज करीब दस वर्ग किमी क्षेत्रफल में बांज-बुरांश, काफल आदि का जंगल लहलहा रहा है। इससे लोगों की घास लकड़ी की जरूरतें भी पूरी हो रही हैं तो पेयजल की स्रोत भी रीचार्ज हुए हैं। जंगल के संरक्षण की कमान विजय जड़धारी आज भी संभाले हुए हैं और ग्रामीणों को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित कर रहे हैं। आज करीब अट्ठाइस साल हो गये हैं इस मुहिम को शुरू हुए और ग्रामीण इसे आगे बढ़ा रहे हैं। खास बात यह है कि गर्मियों के सीजन में जब जंगल में आग लगती है तो ग्रामीण स्वयं आग बुझाने दौड़ पड़ते हैं और जान जोखिम में डालकर आग बुझाते हैं। यहां के जंगल में वन विभाग का भी हस्तक्षेप नही है। विभाग को पता है कि गांव वाले खुद जंगल का संरक्षण कर रहे हैं, इसलिए वे अनावश्यक हस्तक्षेप कभी नहीं करते।
विजय जड़धारी1पर्यावरणविद्

 आंदोलन में भागीदारी कर पर्यावरण संरक्षण की सीख मिली। जंगल पैसों से नही समुदाय की भागीदारी से बचाए जा सकते हैं। प्रकृति अपने घाव खुद भरती है, उससे अनावश्यक छेड़छाड़ नही करनी चाहिए। हमने भी यही किया, और यह जंगल इसका परिणाम है। 1

दैनिक जागरण 16.07.2016 


No comments:

Post a Comment

गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली

 गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली        गढ़वाली भाषा का प्रारम्भ कब से हुआ इसके प्रमाण नहीं मिलते हैं। गढ़वाली का बोलचाल या मौखिक रूप तब स...