गढ़वाल के राजवंश की भाषा थी गढ़वाली
गढ़वाली भाषा का प्रारम्भ कब से हुआ इसके प्रमाण नहीं मिलते हैं। गढ़वाली का बोलचाल या मौखिक रूप तब से है जब से यहाँ लोग रहने लगे। उसका सतही स्वरूप मौखिक रूप से विद्यमान लोक साहित्य में देखा जा सकता है क्योंकि उस समय इसे लिपिबद्ध करने की परम्परा नहीं थी। कत्यूरी राजवंश काल के ताम्रपत्रभिलेखों की भाषा पहाड़ी प्राकृत है। प्रारंभिक गढ़वाली पंवार कालीन जगतपाल 1455 ई० के लगभग से लिखित रूप में सामने आने लगी। देवप्रयाग मंदिर विषयक महाराज जगतपाल के दानपत्र अभिलेख में गढ़वाली क्रियापद और परसर्गों युक्त संस्कृतनिष्ठ गढ़वाली का प्रयोग मिलता हैः-
"श्रीसंवत् 1512 शाके 1377 चैत्रमास शुक्लपक्षे चतुर्थी तिथौ रविवासरे जगतपाल रजवार ले शंकर भारती कृष्ण भट्ट कौं रामचंद्र का भट सर्वभूमी जाषिनी कीती जै जा योटो मट सिल का मट लछमन का मट दिनो सर्वकर अकर सबदान गुदान नोट की नटाली भूवै की औताली रामचन्द्र ले यो नी लिखित यातक ये दुलखी जै तु परसोरा दूसरू सहज यामा चललू सु रजना जै मास जगतपाल रजवार ले दिनी तै भास करीक ली रजवारा शंकरनन्द को कृष्ण भारती को दीना सारवगम देव पर सौदा सुरजु सदजवान की तुलुह मीर गां गूह सोधी। जगतपाल रजवार ले दिनी तैं भात करी।"
15वीं सदी में पंवार वंशीय राजा अजयपाल ने ही गढ़वाल नाम की नींव डाली और उसने गढ़वासियों पर उदारतापूर्वक शासन करने की नीति अपनाई। गढ़वाल का सीमांकन करने वालों में वही पहला शासक है, इसलिए उसी के समय से उसके अटल सीमा स्तंभ के लिए कहावत चली आ रही है- ‘अजैपाल को ओड़ो’। यह कहावत जनभाषा में है, जो उस काल की गढ़वाली का आभास देती है। ओड़ा या ओड़ो गढ़वाली शब्द है। (गढ़वाली- केशव दत्त रुवाली, साहित्य अकादेमी, 2015, पृ० 93) खसप्राकृत में यह ओडो रहा होगा, जो आज भी उसी रूप में प्रयुक्त होता है। देवलगढ़ में अजयपाल का लेख ‘अजैपाल को धरम पाथौ भण्डारी करौंउक’ पूर्ण गढ़वाली में उत्कीर्ण है।
संदीप बडोनी जी ने डा० यशवंत सिंह कठोच जी द्वारा संपादित ठा० शूरवीर सिंह पंवार जी की 'गढ़वाली के प्रमुख अभिलेख' से संकलित शोध पत्र में लिखा है कि "राजा मानशाह का ढांडरी (नांदलस्यूं) काली मंदिर मण्डप अभिलेख संस्कृत और गढ़वाली मिश्रित है। मालद्यूळ, टिहरी गढ़वाल में लक्ष्मीनारायण मंदिर की नींव के पत्थर पर सन् 1785 ई० का लेख टिहरी की शुद्ध गढ़वाली मेें है। डॉ० यशवन्त सिंह कठोच ने दीउल केदारेश्वर मंदिर के अभिलेखों को प्रकाशित किया है। इनमें वजीर चंद्रमणि डंगवाल की 24 अगस्त, 1757 की सनद; महाराज प्रदीप शाह की 9 सितम्बर, 1757 की सनद; महाराज प्रदीप शाह की 11 जनवरी, 1761 की सनद; कुंवर सुदर्शन शाह की 9 मई, 1800 की सनद; महाराज सुदर्शन शाह की 9 नवम्बर, 1836 की सनद गढ़वाली में लिखी गई हैं।" इस प्रकार प्राचीन अभिलेखों से पता चलता है कि गढ़वाल के राजवंश की राजकीय भाषा गढ़वाली ही थी।
मध्यकालीन गढ़वाली:-
गढ़वाल में देवताओं के जागर, आह्वान, स्तुति, मांगलिक गीत व तंत्र-मंत्र पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किए जाते रहे। ढोल सागर इनमें से एक है। इसे सर्वप्रथम 1932 में लिपिबद्ध किया गया। तंत्र-मंत्रों का हस्तलिखित संग्रह गाँवों में मिलता है। इन तंत्र-मंत्रों पर नाथपंथ का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इन मंत्रों में राजा अजयपाल को पंवार वंशीय की जगह नाथ संप्रदाय का माना गया है।
"ऊँ कार्तिक मास, ब्रह्म पक्ष, आदीत वार, भरणी नक्षत्र जरहर लीऊँ, उपाईं माता लक्ष्मी की कूखी लीयो औतार। प्रथम नील। नील को अनील। अनील को अवीक्त। अवीक्त को वीक्त। वीक्त को पुत्र धौं-धौंकार। धौं-धौंकार को भयोे अजेपाल राजा। अजेपाल की भई अजला देवी। अजला देवी गर्ववंती भई------------------।"
तंत्र-मंत्रों के पश्चात् सन 1750 से गढ़वाली पत्र साहित्य, शिलालेख आदि लिखे जाने लगे थे। सन् 1750 ई० में महाराज प्रदीपशाह के राज ज्योतिषी जयदेव बहुगुणा जी की ‘रंच जुड़्यां पंच जुड़्यां जूड़िगे घिमसाण जी’ गढ़वाली में पहली कविता मानी जाती है। सन् 1820 ई० के आसपास ईसाई मिशनरी ने बाइबिल (न्यू टेस्टामेंट) का गढ़वाली अनुवाद करवाया था। अमेरिकी मिशनरियों ने सन 1876 में ‘गोस्पेल ऑफ मैथ्यू’ का गढ़वाली अनुवाद प्रस्तुत किया। माना जाता है कि राजा सुदर्शनशाह के बाद नरेन्द्रशाह तक की प्राप्त राजाज्ञाएँ गढ़वाली में मिलती हैं। उन्नीसवीं सदी में हर्षपुरी, हरिकृष्ण दौर्गादत्ति, लीलानंद कोटनाला आदि की कविताएँ गढ़वाली में लिखी मिलती हैं। 20वीं सदी के आरम्भ में गढ़वाली भाषा के प्रति रुचि रखने वाले जनमानस ने ‘गढ़वाल यूनियन’ के नाम से एक संगठन बनाया। यूनियन के कार्यकर्ताओं तथा उनसे प्रेरणा लेकर कई अन्य लोगों की कविताएँ, लेख आदि गढ़वाली में छपने लगे। शुरूआती दौर में प्रमुख रूप से सत्यशरण रतूड़ी, चन्द्रमोहन रतूड़ी, बलदेव प्रसाद शर्मा, तारादत्त गैरोला, शशि शेखरानंद आदि ने गढ़वाली गीत व कविताओं की रचना की थी। गद्य के क्षेत्र में भी इस युग में थोड़ा बहुत कार्य भवानी दत्त थपलियाल, शालिग्राम वैष्णव, गिरिजादत्त नैथानी आदि ने किया।
सन् 1930 के दशक में भजन सिंह ‘सिंह’ ने आज तक लिखे गए गढ़वाली साहित्य से हटकर सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध लिखना प्रारम्भ किया। कमल साहित्यालंकार, विशालमणि शर्मा, सत्य प्रसाद रतूड़ी, ललिता प्रसाद, चन्द्रकुंवर बर्त्वाल आदि लेखकों ने भी इस दशक में गढ़वाली भाषा को स्फूर्ति प्रदान की। स्वतंत्रता आंदोलन से सम्बन्धित रचनाओं का प्रकाशन करके भगवती शरण शर्मा, भगवती प्रसाद पांथरी, घनानंद घिल्डियाल आदि ने राष्ट्र चेतना को जागृत किया।
वर्तमान गढ़वाली:-
स्वतंत्रता के बाद गढ़वाली साहित्य में हलचल-सी होने लगी। गीत, कविता, कहानी के साथ गढ़वाली नाटक, निबंध, गढ़वाली व्याकरण, गढ़वाली भाषा कोश, मुहावरा व लोकोक्ति कोश के क्षेत्र में भी कार्य होने लगा। गोविन्द चातक जी के ‘गढ़वाली भाषा’ (1959), अच्युदानन्द घिल्डियाल जी की ‘गढ़वाली भाषा और साहित्य’ (1962), मोहनलाल बाबुलकर जी के ‘गढ़वाली लोक साहित्य का विवेचनात्मक अध्ययन’ (1963), गुणानंद जुयाल जी के ‘मध्य पहाड़ी भाषा का अनुशीलन और उसका हिंदी से सम्बन्ध’ (1967), हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’ जी के ‘गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य’ (1976), गोविंद चातक जी के ‘भारतीय लोक संस्कृति का संदर्भः मध्य हिमालय’ (1990) तथा अबोध बंधु बहुगुणा जी द्वारा ‘गढ़वाली व्याकरण की रूपरेखा’ (1960), शिवराज सिंह रावत ‘निसंग’ जी की ‘भाषा तत्व और आर्य भाषा का विकास’ (2010), रमाकान्त बेंजवाल की ‘गढ़वाली भाषा की शब्द संपदा’ (2010), रजनी कुकरेती जी की ‘गढ़वाली भाषा का व्याकरण’ (2010), सुरेश ममगाईं जी की ‘गढ़वाली भाषा और व्याकरण’ (2019) नामक पुस्तक प्रकाशन के साथ-साथ अन्य लेखकों ने भी गढ़वाली व्याकरण की महत्ता पर प्रकाश डाला। गढ़वाली में शब्दकोशों पर जयलाल वर्मा जी (1982), मालचंद रमोला जी (1994), अरविंद पुरोहित जी व बीना बेंजवाल जी (2007) के गढ़वाली हिंदी शब्दकोश प्रकाशित हुए। उत्तराखण्ड संस्कृति विभाग का डॉ० अचलानंद जखमोला जी एवं भगवती प्रसाद नौटियाल जी द्वारा संपादित गढ़वाली हिंदी अंग्रेजी शब्दकोश 2014 ई० में प्रकाशित हुआ। अब तक गढ़वाली से हिंदी के शब्दकोश प्रकाशित हुए थे लेकिन रमाकान्त बेंजवाल एवं बीना बेंजवाल द्वारा पहला हिंदी गढ़वाली (रोमन रूप सहित) अंग्रेजी शब्दकोश (2018) का प्रकाशन इस बीच हुआ। वर्ष 2021 में कुंजविहारी मुंडेपी जी का गढ़वाली हिंदी अंग्रेजी शब्दकोश प्रकाशित हुआ है।
प्रारंभिक गढ़वाली और वर्तमान में लिखी या बोली जा रही गढ़वाली में काफी अंतर आया है। इसका मुख्य कारण स्वतंत्रता के बाद राजभाषा गढ़वाली नहीं रही और जो लिखा गया उस पर हिंदी का प्रभाव ज्यादा रहा है।
गढ़वाली साहित्य प्रचुर और लोक- साहित्यप्रचुर मात्रा में उब्लब्ध हैं
-रमाकांत बेंजवाल