परिवर्तन इन्सान के जीवन का एक अहम हिस्सा हैं। परिर्वतन ही आदमी को राजा से “रंक” और “रंक” से ”राजा” बना देता है। परिर्वतन इन्सान के जीवन में ही नही अपितु समस्त पृथ्वी में जितने भी प्राणी है, उन सब के जीवन में आता हैं। जैसे ”फल, से वृक्ष का बनना, जल से बादल का बनना, दिन से रात, रात से दिन का होना, यह भी एक परिर्वतन है। रात से दिन तक के परिर्वतन में आदमी भी पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता हैं। वह उस समय एक निर्जीव आत्मा बन जाता है। ठीक इसके बिपरीत दिन से रात होने तक का परिर्वतन इन्सान के जीवन में कभी खुशी, कभी गम के क्षण लाता हैं। परिर्वतन भी पृथ्वी की तरह है। जो अपनी घुरी पर घुमते-घुमते फिर उसी स्थिती में आ जाती है जिस स्थिती में वह पहले थी। यही प्रकृति का नियम भी हैं।
रंक से राजा बनने का परिर्वतन आदमी को बहुत कम याद रहता है। जिनको यह परिर्वतन याद रहता है, वह महापुरष कहलाते हैं। उन्हे वह क्षण याद रहते है जो उन्होनेे निर्धन जीवन में ब्यतीत किये थे। इस लिऐ वह किसी भी कमजोर असाहय आदमी के साथ अमानिविय ब्यवहार नही करते जो निर्धन जीवन में लोगो ने उनके साथ किये थे। लेकिन इस कलयुग में ऐसे महापुरष बहुत कम देखने को मिलते है। वरना आजकल तो लोग उकाव कट के सरबट हैं।
कलयुग में अशोक, पृथ्बीराज चैहान, सिकन्दर, इन्होने भी अपने जीवन में परिर्वतन करके तरक्की की। लेकिन इतना सब कुछ पाने के बाद भी वह अपनी मातृ भूमि में वापस चले गये न कि उसी राज्य उसी देश में बस गये जिसे उन्होने अपने अधीन किया था। लेकिन आजकल का इन्सान अपने जीवन में परिर्वतन लाने के बाद अपनी पित्र भूमि के भूल जाता हंै। आदमी इस शहर की जिन्दगी में इस कदर बंध जाता है कि उसे सोचने का
मौका ही नही मिल पाता बहुत कम लोग होते हैं जो अपने बीते दिनो को याद करते हैं। जिन दिनो वह अपने गाँव में रह रहे थे। अपने गाँव में बांझ बुरांस की उस शीतल पवन को याद कर पाते हैं जिसकी ठंडक से आदमी को सकुन मिलता था। जिन पेड़ो के नीचे बैठकर आदमी को हर आवाज बड़ी प्यारी लगती थी। कोई दूर घाटी पर पत्थर तोड़ रहा है तो उस पत्थर पर पड़ने वाली चोट अति कर्ण प्रिया लगती थी। तथा उसी आवाज का पहाड़ से टकराकर वापस आना आकाशबाणी के समान प्रतित होना लगता था। इसी प्रकार दूर पहाड़ी पर बैठे चारगाह की बांसुरी की धुन तो आदमी को पागल बना देती थी। हर कोई इस धुन में ऐसा रमता, जैसे जुआरी जुआ खेलने में रमा हुआ होता है। जुआ खेलते वक्त जुआरी को न खाने की चिन्ता रहती है, न शौच जाने की। उसका ध्यान एक पल के लिए भी भंग नही होता। इसके अलावा अगर आप को दूर बजते ढोलो की आवाज को दोबरा सुनने को मिले। तो आप खुशी से प्रफुल्लित हो उठेगे। क्योंकि दूसरी पहाड़ी पर बजने बाले ढोल शब्द जब हमारे कानो पर पड़ते है तो हमे वह दिन याद आने लगते हैं जब हम भी इसी तरह बारात लेकर अपनी जीवन संगनि को लेने जा रहे थे। इसके बिपरीत वह कुंआरा लड़का अपनी मायादार के बारे में सपने बुनने लग जाता है। कि मेरी जीवन संगनि कहाँ और कैसी होगी ?
मौका ही नही मिल पाता बहुत कम लोग होते हैं जो अपने बीते दिनो को याद करते हैं। जिन दिनो वह अपने गाँव में रह रहे थे। अपने गाँव में बांझ बुरांस की उस शीतल पवन को याद कर पाते हैं जिसकी ठंडक से आदमी को सकुन मिलता था। जिन पेड़ो के नीचे बैठकर आदमी को हर आवाज बड़ी प्यारी लगती थी। कोई दूर घाटी पर पत्थर तोड़ रहा है तो उस पत्थर पर पड़ने वाली चोट अति कर्ण प्रिया लगती थी। तथा उसी आवाज का पहाड़ से टकराकर वापस आना आकाशबाणी के समान प्रतित होना लगता था। इसी प्रकार दूर पहाड़ी पर बैठे चारगाह की बांसुरी की धुन तो आदमी को पागल बना देती थी। हर कोई इस धुन में ऐसा रमता, जैसे जुआरी जुआ खेलने में रमा हुआ होता है। जुआ खेलते वक्त जुआरी को न खाने की चिन्ता रहती है, न शौच जाने की। उसका ध्यान एक पल के लिए भी भंग नही होता। इसके अलावा अगर आप को दूर बजते ढोलो की आवाज को दोबरा सुनने को मिले। तो आप खुशी से प्रफुल्लित हो उठेगे। क्योंकि दूसरी पहाड़ी पर बजने बाले ढोल शब्द जब हमारे कानो पर पड़ते है तो हमे वह दिन याद आने लगते हैं जब हम भी इसी तरह बारात लेकर अपनी जीवन संगनि को लेने जा रहे थे। इसके बिपरीत वह कुंआरा लड़का अपनी मायादार के बारे में सपने बुनने लग जाता है। कि मेरी जीवन संगनि कहाँ और कैसी होगी ?
यू तो हमे हर वह पल याद आता है, जो हमने अपने गाँव में बिताये थे। उस पल को याद करते ही मन से एक तस्वीर आँखो के सामने उबर आती है। जैसे आदमी कन्धे पर हल रखकर घुंघरूदार बैलो केे साथ खेत जोतने जा रहा हैं । और आधा खेत जोतने के बाद उसे ऊपर-नीचे वाले हलधरो का रोटी खाने के लिए बुलाना। और हल्की तेज धूप में खेत किनारे बैठकर चाय गरम करके रोटी खाना कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि क्या ? फिर वह दिन आयेगे। और हमे एक बार फिर बरसात के मौसम का आनन्द उठाने को मिलेगा जब तेज बारिश लगते ही खेतो के मेंढो से पानी का गिरना। क्या ? कभी इन झरनो का शोर हमारे कानो में गुजेगाा जिनमें अब शहर का कान फोडू शोर गुजता है। कितना रमणीया दृश्य होता था वह जब सीड़ी नुमा खेतो से पानी के झरने बारिश थमने तक गिरते रहते थे। और हम उन्हे अपने घरो की खिड़कियों से निहारा करते थे। बारिश का वह मटमैला पानी चाय के समान प्रतीत होता था। जमीन के नीचे से पानी का निकलना कितना प्यारा लगता था दूसरे दिन निकलते ही चमचमती धूप इन प्रकृति के माध्यम से स्नान किये हुऐ पहाड़ो पर चार चाँद लगा देती थी। हर किसी के चेहरे पर एक अजीब सी रौनक रहती थी झरनो से गिरने वाला पानी जब सफेद उज्वल चाँदी का रूप धारण कर लेता है तो आदमी इसे निहारे बिना नही रह पता। अब तो हरियाली समस्त पहाड़ो को अपने आगोश में ले लेती है। सीड़ी नुमा खेत हरे रंग के धान के पौधो से ऐसे प्रतीत होते है जैसे किसी ने इस धरती पर हरा रंग बिखेर दिया हो। गीली मिटटी की महक आदमी के मन में एक अजीब सा उत्साह भर लेती है। लोगो ने घरो के अन्दर टपकती बुंदो के लिए जो बर्तन लगा रखे थे वह उन्हे हठना शुरू कर देते है। वैसे इन बरतानो में बारिश की टपकती हुई बुंदो की लय भी संगीत का निर्माण करती है जो संगीत हमारे मन को मोह लेता है।
लेकिन अब हम अतीत में तो नही जा सकते पर अपने आने वाले कल में एक बार फिर जिन्दगी के वह रंग भर सकते है। अपने पुराने दिनो को याद करके अपनी बची हुई जिन्दगी को सुहवाना और सुंदर बना सकते है। जिन दिनो में हम अपने परिवार और दोस्तो के साथ बैठकर सर्दियो में बाते किया करते थे। जब हम बारिश के मौसम में स्नान करने के बाद अगेटी के सामने बैठकर शरीर को गरम करते-करते अपने आने वाले कल के बारे में सोचते थे। तथा साथ में दादी हमे अपनी कथाये सुनाया करती थी। और हम इन कथाओ को बड़े ध्यान से सुना करते थे। वैसे भी दोपहर के समय धूप सेकने का आनन्द कुछ और ही होता था। जैसे-जैसे धूप हम से दूर जाने लगती है हम भी धूप के साथ उसके पीछे चला करते थे। और तब तक चलते रहते जब तक सूर्य पूर्ण रूप से अस्त नही हो जाता। जिस धूप से हमे जेठ के माह में डर लगता था वही धूप हमें सर्दियो में जीवन दायनि लगती हैं। और अगर कभी बीच में किसी बादल ने अपने बिशाल आकार से सूर्य को ढक दिया तो हम उस बादल को अशब्द कहने से नही चूकते। ठीक इसके बिपरित गर्मियों के मौसम में हम उसी बादल को भगवान का भेजा हुआ दूत मानते है। जिसके कारण हमे शीतल छाया प्रधान हुई हैं। ये बाते तो इन्सान की मानसिक स्थिति के बारे में थी कि इन्सान अपने मतलब के लिये पल भर में अपना रंग कैसे बदल देता हैं।
अब जैसे जैसे सर्दियो का मौसम बढ़ता जाता है दूर-दूर तक सफेद पाला अपने पाँव पसार देता हैं। तथा अधिक ठण्ड होने के कारण कई जगह तो पानी की परते जम जाती है। जो सीसे के समान पारदर्शी होती है इसके अलावा मकड़ी के जालो में रूका हुआ पाला सूर्य की रोशनी पड़ते ही मोतियो के समान अपनी चमक बिखेर देता है। और फिर ठण्ड बढ़ते ही शुरू हो जाती है वह चीज जिसके लिए पहाड़ो को जाना जाता हैं। “हिमपात” बर्फबारी होते ही समस्त पहाड़ सफेद रंग की चादर ओढ़ लेते है रूई के समान गिरने वाली बर्फ सबका मन मोह लेती हैं। उस समय एसे प्रतीत हो रहा होता है जैसे आज आसमान ने पृथ्बी पर खुश होकर चमेली के फूलो की वर्षा कर दी हो ।
क्या कभी अब हम वह गिरती हुई बर्फ देख पायेगें ? जो हमने आज से कई साल पहले देखी थी मुझे तो अब अपने आँखो पर बिश्वास ही नही हो रहा है कि कभी इन आँखो ने कुदरत के वह मन मोहक दृश्य देखे होगे जो अब इस बक्त मेरी यादो के पन्नो पर कई खो गये हैं। क्या यही इन्सान के जीवन का परिर्वतन है। सब कुछ होने के बाद भी उसके पास कुछ नही हैं। जिस चीज को हम अपनी जीत समझ रहे है क्या वकाई में ये हमारी जीत हैं। अगर हमने थोड़ा सा पाया है तो इसके बिपरीत उससे कई गुना अपने जीवन में हमने खोया हैं। जिसे अब समेटना शायद बहुत मुशकिल ही नही नमुमकिन भी हैं। क्या यह उमस भरी गर्मी ही हमारे लिए परिर्वतन हैं। क्या हम इतने नासमझ हो गये है कि हम शुद्व हवा और शुद्व पानी में फरक महसूस नही कर पा रहे हैं। क्या हमारा शरीर इतना मुलायम और कोमल हो गया है कि हम अपने पहाड़ की अहो-हवा को सहन नही कर पा रहे हैं ? क्या हमारी रगो में पहाड़ी खून नही दौड़ रहा हैं ? जो हम दो चार दिन की परेशानी को कह देते है कि हमे और हमारे बच्चो को यहाँ का मौसम रास नही आ रहा हैं। शायद यह धरती माँ हमारी परीक्षा ले रही हैं कि तुम्हे अपनी पित्र भूमि से प्यार है भी या नही।
क्यो भुल रहे है हम उन गाँव में लगने वाले मेलो को जिन्हे कभी हमारे पूवर्ज अपने गाँव की शान समझा करते थे। क्या वह त्यौहार अब हमारे गीतो में ही रहे जायेगे जिन्हे हम बड़े हर्ष-उल्लास और धुमधाम से मनाते थे। क्या अब हम इतने बेसुरे हो गये है कि पंचमी के गीत नही गा सकते। जब एक बिहारी अपनी छठ पूजा एक गुजराती डान्डिया और पंजाबी अपनी लोहड़ी को सड़को पर उतर कर मना सकते है तो हम क्यों नही ? क्या हम अब फूलो की सुगंध को महसूस नही कर पा रहे है ? क्यों हमने फूल संगरांद के समय एक दूसरे के घरो में फूल डालना बन्द कर दिया है।
जिन फूलो का हम सदा खुश रहने का प्रतीक मानते हैं जिन फूलो के डालने के दिन से एक माह बाद हमें पैसे मिला करते थे जिन पैसो के लिए भाई बहिनो में प्यार से झगड़ा हुआ करता था। आज वही फूल अपनी पहचान खोये हुऐ हैं। हमारे पास ये दो ही एसे त्यौहार है जिनसे हम अपनी संस्कृति की पहचान को अपने देश में फैला सकते हैं ।
क्या कभी वह दिन आयेगा जब हम एसी और पंखे की कृतिम हवा से बाहर आकर प्राकृतिक हवा का लुुप्त उठाने के लिए अपने मुल्क की हसीन वादियों में जा पायेंगे जहाँं पर बांझ बुरांस और देबदार की छाया तथा शीतल पवन आज भी हमारा इन्तजार कर रही हैं। क्या कभी हम पहाड़ की चोटी पर चढ़कर उस हिमराज को देख पायेंगे जिसे देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि दो पहाड़ो को पार करने के बाद हम हिमालय की गोद में पहुच जायेगे ? क्या कभी हमें अपने जंगल के उन पौधो की सुगंध सुघने को मिल पायेगी ? या फिर सारी जिन्दगी भर हम इस शहर की दुषित हवा में ही रहेगे। क्या फिर बुरांस और फ्यूलोड़ी हमारे दरवाजो पर दस्तक देने आयेगी ? जो दरवाजे कई सालो से बन्द पड़े हुऐ हैं। क्या कभी हम जगंल से गुजरने वाली सड़क के किनारे बनी दुकान में चाय की चुस्किया ले पायेगे जहाँ पर बैठकर हम बस का इन्तजार किया करते थे। और साथ में चाय का आनन्द उठाते थे।
क्या कभी हमें इस दौड़ती भागती जिन्दगी में अपनी धरती माता को देखकर दया का भाव आया कि जो धरती अपनी गोद में कई प्रकार की बनस्पतियो को जन्म देती हैं आज उसी धरती से हम मुहँ फेरे हुऐ हैं। जिस धरती से हमे कोदू झंगोरू कौणी आदि अनाज मिलता है जिसे दवा का दर्जा प्राप्त हैं आज हम उस नाज का पाचन क्यों नही कर पा रहे हैं। क्या हमारी पाचन शाक्ति इतनी कमजोर हो गयी हैं जो हम मोटा अनाज नही खा पा रहे हैं। जिसे शहर में हम रहे रहे है वह शहर तो रोगो की खान है जहाँ पर रहने के साथ साथ आदमी कई बिमारीयो को पाल देता हैं। और फिर अग्रेजी दवा खा-खा कर एक दिन अपने आप को मौत के मुहँ में धकेल देता हैं।
आज हमने उस स्र्वग समान धरती को छोड़ रखा है जहाँ पर कभी ऋषि मुनियो का वास हुआ करता था। जहाँ पर पांच प्रयागो का संगम हैं। जिस धरती पर बडे-बडे पराक्रमी बीरो ने जन्म लिया। जिस धरती को बावन गढ़ो का देश भी कहा जाता है। जिस मुल्क के बीरो ने सिकन्दर जैसे महान योद्वा को पीछे हठने पर मजबूर कर दिया और फिरंगियो ने कब्जा करने से पहले दस बार सोचा। आज हम ऐसी धरती का त्याग कर रहे है। जहाँ पर हर कदम पर देवताओं का वास हैं।
कितना अजीब है इन्सान किसी भी चीज से संतुष्ट नही होता गर्मी में कहता है कि सर्दियों का मौसम ठीक हैं और सर्दियांे में कहता है कि गर्मियों का मौसम ठीक हैं। क्या यही परिर्वतन है ? अगर यही परिर्वतन है तो मानव प्रकृति में आने वाले परिर्वतन के लिये भी तैयार रहे।Garhwali poem garhwali kavita Garhwali poem garhwali kavita Garhwali poem garhwali kavita
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